चूहों के पूरी तरह सफाये में जुटा है न्यूजीलैंड
न्यूजीलैंड में चूहों के समूल नाश के लिए अभियान चलाये जा रहे हैं.
न्यूजीलैंड में चूहों के समूल नाश के लिए अभियान चलाये जा रहे हैं. 2050 तक देश पूरी तरह चूहा-मुक्त हो जाना चाहता है. मकसद है कीवी पक्षी की रक्षा.न्यूजीलैंड ने एक बार फिर चूहों के खिलाफ जंग छेड़ दी है और पूरी चूहा प्रजाति के समूल नाश का फैसला कर लिया है. देश की पहचान कीवी पक्षियों को बचाने के लिए यह अभियान चलाया जा रहा है जिसके तहत 2050 तक देश को चूहों से पूरी तरह मुक्त करने का लक्ष्य तय किया गया है.
एक सदी में पहली बार ऐसा हुआ है कि वेलिंगटन की पहाड़ियों के आसपास कीवी पक्षी नजर आ रहे हैं. ऐसा राजधानी और उसके आसपास के इलाकों से चूहों के सफाये की कोशिशों के चलते संभव हो पाया है.
एक हजार साल पहले कोई न्यूजीलैंड जाता तो उसे हर ओर कीवी पक्षी नजर आते, जिनका मूल देश वही है. लेकिन तब उन पक्षियों को अंदाजा ही नहीं था कि चूहे जैसा कोई जीव भी होता है जो एक दिन उनके वजूद के लिए खतरा बन जाएगा.
क्यों जरूरी है चूहों का खात्मा?
1200 ईस्वी में पोलीनीजिया और उसके कुछ सौ साल बाद यूरोपीय लोगों के न्यूजीलैंड पहुंचने के बाद धरती के उस हिस्से पर हालात एकदम बदल गये. उन लोगों के साथ जहाजों पर चूहे भी आए जिन्होंने न्यूजीलैंड में कीवीयों के खाने में सेंध लगायी और सारे बीज व बेरी चट कर गये. इससे कीवीयों के खाने के लिए कुछ बचा ही नहीं. चूहों की एक अन्य प्रजाति पोसम ने पेड़ों पर हमला बोला. खरगोशों ने खेतों और उनके नीचे की जमीन को निशाना बनाया.
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संकट एक के बाद एक बढ़ते गये और कीवीयों और काकापो जैसे न्यूजीलैंड के मूल पक्षियों की संख्या घटती चली गयी. देश के संरक्षण विभाग का अनुमान है कि अब देश में लगभग 70 हजार जंगली कीवी पक्षी बचे हैं. हकीकत यह है कि देश की पहचान होने के बाद कम ही देशवासी हैं जिन्होंने जंगली कीवी देखा हो.
लेकिन पिछले कुछ सालों से उनकी सुरक्षा के लिए चलाए जा रहे अभियानों का नतीजा अब नजर आने लगा है. 90 से ज्यादा संगठनों और संस्थाओं ने मिलकर ये अभियान शुरू किये हैं. इनमें से एक है ‘द कैपिटल कीवी प्रोजेक्ट' जिसे सरकारी और गैर सरकारी स्रोतों से करोड़ों डॉलर का धन मिला है.
इस संस्था के संस्थापक पॉल वार्ड ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "जब से लोग न्यूजीलैंड में आये, कीवीयों के साथ उनका विशेष संबंध रहा है. वे माओरी मिथकों का हिस्सा हैं. हमारी खेल टीमें, हमारी फौज और यहां तक विदेशों में आम नागरिकों को भी कीवी कहा जाता है. वे मजबूत, लचीले और हालात के हिसाब से खुद को ढालने वाले होते हैं. लेकिन हममें से बहुत से लोगों ने कभी कीवी नहीं देखा है.”
कीवीयों की सुरक्षा के लिए सबसे पहले उनके दुश्मनों को खत्म करने का बीड़ा उठाया गया है. 2016 में न्यूजीलैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री जॉन हावर्ड ने ऐलान किया कि 2050 तक देश से चूहों का पूरी तरह सफाया कर दिया जाएगा. और चूहों का मतलब सिर्फ चूहा नहीं बल्कि उसकी सभी प्रजातियां हैं.
जैसे ‘द कैपिटल कीवी प्रोजेक्ट' ऊदबिलाव जैसे दिखने वाले स्टोट्स को खत्म करने में जुटा है. स्टोट को खरगोशों के खात्मे के लिए न्यूजीलैंड लाया गया था लेकिन अब वे खुद ही एक खतरा बन चुके हैं. वार्ड बताते हैं कि एक वयस्क कीवी तो स्टोट से लड़ सकता है लेकिन उसके बच्चों पर वे भारी पड़ जाते हैं.
संस्था ने वेलिंगटन के आसपास 4,500 जाल बिछाए हैं और एक हजार से ज्यादा स्टोट पकड़े हैं. इसके अलावा कई अन्य संगठन दूसरे शिकारियों का सफाया करने में जुटे हैं.
मसलन, ‘प्रीडेटर फ्री 2050', ‘प्रीडेटर फ्री मीरामार' और ‘प्रीडेटर फ्री वेलिंगटन' जैसी संस्थाएं अपनी-अपनी तरह से इस लड़ाई में शामिल हैं. इसी का नतीजा है कि अब शिकारियों की संख्या इतनी कम हो गयी है कि वेलिंगटन में कीवी लाये जा सकते हैं.
कहां से आया विचार?
चूहों को खत्म करने का विचार 2011 में ऑकलैंड यूनिवर्सिटी के जीवविज्ञानी जेम्स रसेल ने 2011 में दिया था. उनके इस विचार को अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं और पर्यावरण प्रेमियों का साथ मिला और जल्द ही राजनेताओं ने भी इस विचार को अपना लिया. इसीलिए 2016 में जॉन हावर्ड ने चूहों के समूल नाश का आहवान किया था.
हावर्ड सरकार ने इस बारे में एक कानून पास कर तीन प्रजातियों रैट्स, मस्टेलिड्स और पोसम को सबसे खतरनाक दुश्मन करार देते हुए 2050 तक उनके पूरे सफाये की बात कही थी. देश के नये प्रधानमंत्री क्रिस हिपकिंस के नेतृत्व में इस अभियान में एकाएक तेजी आ गयी है.
पिछले साल एक स्कूल ने बच्चों के बीच चूहे मारने का मुकाबला करवा दिया था और सबसे ज्यादा चूहे मारने के लिए इनाम का ऐलान किया गया था.
ऐसे भी काफी लोग हैं जो 2050 तक चूहों के खात्मे को संभव नहीं मानते. जीलैंडिया नामक संस्था स्थापित करने वाले जेम्स लिंच को इस लक्ष्य की व्यवहारिकता पर संदेह है. हालांकि वह लक्ष्य के महत्व पर सवाल नहीं उठाते लेकिन वह कहते हैं कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जरूरी साधन उपलब्ध नहीं हैं.
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लेकिन वार्ड जैसे लोग मानते हैं कि इन चिंताओं को परे हटाकर जी जान से कीवी पक्षी को बचाने की कोशिश की जानी चाहिए. वह कहते हैं, "जिस जानवर ने हमें हमारा नाम दिया है, उसकी देखभाल करना हमारा फर्ज है. हमारे एक स्वयंसेवक ने एक बार कहा था कि अगर हमें नाम देने वाले पक्षी की ही हम देखभाल नहीं कर सकते तो फिर हमारा नाम बदलकर मूर्ख कर देना चाहिए.”
विवेक कुमार (एएफपी)