देश की खबरें | हिंदू संगठन ने 1991 के उपासना स्थल कानून को लेकर न्यायालय से हस्तक्षेप का अनुरोध किया

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नयी दिल्ली, छह जनवरी अखिल भारतीय संत समिति नामक हिंदू संगठन ने सोमवार को उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर 1991 के उपासना स्थल कानून के प्रावधानों की वैधता के खिलाफ दायर मामलों में हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया। इस कानून में 15 अगस्त 1947 के समय के धार्मिक स्वरूप को बरकरार रखने को कहा गया है।

वकील अतुलेश कुमार के माध्यम से दायर संगठन की याचिका में 1991 के अधिनियम की धारा तीन और चार को चुनौती दी गई है। दलील दी गई है कि इन धाराओं से समानता के अधिकार एवं धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता सहित कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।

उपासना स्थल कानून किसी भी पूजा स्थल के धार्मिक स्वरूप को उसी रूप में बनाए रखने का प्रावधान करता है जैसा वह 15 अगस्त 1947 को था। हालांकि, अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद से संबंधित विवाद को इसके दायरे से बाहर रखा गया था।

प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने 12 दिसंबर, 2024 को अगले निर्देश तक सभी अदालतों को नए मुकदमों पर सुनवाई और धार्मिक स्थलों, विशेष रूप से मस्जिदों और दरगाहों पर दावों के संबंध में लंबित मामलों में कोई भी प्रभावी अंतरिम या अंतिम आदेश पारित करने पर रोक लगा दी।

शीर्ष अदालत उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के विभिन्न प्रावधानों को चुनौती देने वाली लगभग छह याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। कानून के प्रभावी क्रियान्वयन का अनुरोध करते हुए कुछ मुस्लिम संगठनों द्वारा हस्तक्षेप की कई याचिकाएं भी हैं।

हिंदू संगठन ने अपनी नयी याचिका में 1991 के अधिनियम की धारा तीन और चार की वैधता को विभिन्न आधार पर चुनौती दी है। अधिनियम की धारा तीन पूजा स्थलों के स्वरूप बदलने पर रोक लगाती है, जबकि धारा चार अदालतों को ऐसे स्थानों के धार्मिक स्वरूप के बारे में विवादों पर विचार करने से रोकती है।

याचिका में आरोप लगाया गया कि ये प्रावधान ‘‘बर्बर आक्रमणकारियों’’ द्वारा स्थापित उपासना स्थलों को वैध बनाते हैं, जबकि हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों के अपने पवित्र स्थलों को पुनः प्राप्त करने और पुनर्स्थापित करने के अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।

वृंदावन और वाराणसी में मुख्यालय वाली समिति ने कहा कि 1991 का कानून अदालतों को विवादों की समीक्षा करने से रोककर न्यायिक प्राधिकार को कमजोर करता है, जो संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है।

इसमें कहा गया है, ‘‘यह अधिनियम न्यायिक समीक्षा को रोकता है जो संविधान के मूलभूत पहलुओं में से एक है, इसलिए यह भारत के संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है।’’

याचिका में कहा गया कि कानून कटऑफ तिथि 15 अगस्त, 1947, ऐतिहासिक अन्याय की अवहेलना करती है और समुदायों को समाधान मांगने के अधिकार से वंचित करती है।

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