Mahaparinirvan Diwas 2019: जानिए कैसे संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ‘महार’ जाति से ब्राह्मण और फिर बौद्ध धर्म से जुड़े

भारतीय संविधान के निर्माता एवं ‘भारत रत्न’ डॉ. भीमराव आंबेडकर की 63वीं पुण्यतिथि है 6 दिसंबर को मनाई जा रही है. 6 दिसंबर 1956 को इस युग निर्माता ने अंतिम सांस ली थी. देश उन्हें बाबासाहेब आंबेडर के नाम से भी जानता है. इस दिवस विशेष को पूरे देश में ‘महापरिनिर्वाण दिवस’ के रूप में भी मनाया जाता है.

महापरिनिर्वाण दिवस 2019 (Photo Credits : commons.wikimedia

Mahaparinirvan Diwas 2019: भारतीय संविधान के निर्माता एवं ‘भारत रत्न’ डॉ. भीमराव आंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) की 63वीं पुण्यतिथि (63rd Death Anniversary) 6 दिसंबर को मनाई जा रही है. 6 दिसंबर 1956 को इस युग निर्माता ने अंतिम सांस ली थी. देश उन्हें बाबासाहेब आंबेडर के नाम से भी जानता है. इस दिवस विशेष को पूरे देश में ‘महापरिनिर्वाण दिवस’ (Mahaparinirvan Diwas) के रूप में भी मनाया जाता है. अपना संपूर्ण जीवन बाबासाहेब (Dr. Babasaheb Ambedkar) ने सामाजिक बुराइयों मसलन छुआछूत एवं जातिवाद के खिलाफ संघर्ष में ही गुजार दिया. वे स्वतंत्र भारत के पहले कानून एवं न्याय मंत्री बनें. गौरतलब है कि आंबेडकर ही भारतीय संविधान के जनक हैं.

महार जाति में पैदा होकर ऐसे बनें ब्राह्मण

जातिवाद एवं छुआछूत के खिलाफ संघर्ष का आह्वान बाबा साहेब ने इसीलिए किया था क्योंकि वे स्वयं भी इस बुरी परंपरा का बार-बार शिकार हो चुके थे. गौरतलब है कि डॉ. भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के छोटे से गांव महू में हुआ था. पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और मां का नाम भीमाबाई था. वे अपने माता-पिता की चौदहवीं संतान थे. भीमराव मूलतः महार जाति के थे, जिसे उन दिनों लोग अछूत एवं निचली जाति का मानते थे और ऐसे लोगों से ऊंची जाति के लोग दूरी बनाकर रहते थे. बाबासाहेब प्रतिभाशाली और स्कूल के कुशाग्र बुद्धि के छात्र थे, लेकिन निचली जाति का होने के कारण उनके साथ कदम-कदम पर भेदभाव किया जाता था.

स्कूल में एडमिशन में हो रही समस्या से निपटने के लिए उनके पिता ने उनका उपनाम सकपाल के बजाय अंबडवेकर लिखवाया. उन दिनों कोंकण व महाराष्ट्र में अमुक गांव के नाम पर उपनाम रखने का प्रचलन था. कहा जाता है कि जिस स्कूल में बाबासाहेब पढ़ते थे, वहां एक ब्राह्मण टीचर कृष्ण महादेव आंबेडकर भी थे. बाबा साहेब की कुशाग्र बुद्धि से वे बहुत प्रभावित थे. उन्होंने बाबा साहेब का उपनाम अंबडवेकर हटवाकर उन्हें अपना सरनेम दिया. इस प्रकार बाबा साहेब सकपाल से अंबवेडकर और फिर अंबेडकर हो गये.

समाज में व्याप्त जातिवाद के खिलाफ अथक संघर्ष

बाबासाहेब को पढ़ने लिखने का बहुत शौक था, लेकिन ज्यादा समय अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई एवं भारतीय समाज में व्याप्त छुआछूत एवं जातिवाद के खिलाफ आंदोलनों में व्यस्त रहने के बावजूद वे लिखने-पढ़ने के लिए वक्त निकाल लेते थे. यह भी पढ़ें: Mahaparinirvan Diwas 2019: डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की पुण्यतिथि 6 दिसंबर को, महापरिनिर्वाण दिवस पर जानें भारतीय संविधान के रचयिता से जुड़ी रोचक बातें

इस तरह अपनाया बौद्ध धर्म

14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में आयोजित एक सार्वजनिक समारोह में डॉ. भीमराव आंबेडकर उपस्थित थे. इस समारोह में श्रीलंका के महान बौद्ध भिक्षु महत्थवीर चंद्रमणी भी आमंत्रित थे. डॉ. भीमराव इस महान बौद्ध भिक्षु से इतने प्रभावित हुए कि वह उनकी शरण में जा पहुंचे, और पारंपरिक तरीके से ‘त्रिरत्न’ और ‘पंचशील’ को स्वीकारते हुए बौद्ध धर्म अपना लिया. कहा जाता है कि यहीं पर 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म पर अपनी आखिरी पुस्तक 'द बुद्ध एंड हिज़ धम्‍म' लिखी. इस पुस्तक का प्रकाशन उनकी मृत्यु के एक वर्ष पश्चात हुआ.

जानलेवा साबित हुई मधुमेह

डॉ. आंबेडकर मधुमेह के मरीज थे. आजादी के बाद सामाजिक आंदोलनों में अति व्यस्तता के कारण स्वयं के लिए उनके पास समय नहीं था. अंतिम दिनों में भी वे अपनी पुस्तक 'द बुद्ध एंड हिज़ धम्‍म' को पूरा करने में ही व्यस्त रहे. परिणाम स्वरूप उनके मधुमेह का स्तर खतरनाक स्टेज पर पहुंच गया, अंततः पुस्तक पूरी होने के 3 दिन बाद 6 दिसंबर 1956 को दिल्‍ली में उनका निधन हो गया. उनका अंतिम संस्‍कार मुंबई में बौद्ध रीति-रिवाज के साथ हुआ. कहा जाता है कि उनके अंतिम संस्‍कार के वक्त उनके मृत देह को साक्षी मानकर उनके करीब 10 लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर बौद्ध धर्म अपना लिया था.

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