देश के कई राज्यों में बढ़ा निपाह का खतरा, सतर्क रहें

दक्षिणी राज्य केरल में एक और दिमागी बुखार यानी निपाह ने दस्तक दी है. निपाह के बढ़ने संक्रमण से लोगों की चिंताएं बढ़ गई हैं.

(Photo Credits: Pixnio)

दक्षिणी राज्य केरल में एक और दिमागी बुखार यानी निपाह ने दस्तक दी है. निपाह के बढ़ने संक्रमण से लोगों की चिंताएं बढ़ गई हैं. विश्वस्वास्थ संगठन की तरफ से चेताया गया है कि भारत और आस्टेलिया में इस वायरस के फैलने की अधिक संभावनाएं हैं. केरल का कोझिकोड जिला पूरी तरह से प्रभावित है. यहां संक्रमित 12 लोगों की मौत हो चुकी है, जिसमें एक नर्स लिनी पुतुसेरी भी शामिल हैं.

मीडिया में मौत से पूर्व नर्स की तरफ से पति को लिखी गई चिट्ठी लोगों का काफी द्रवित किया है. इसमें बच्चों को लेकर भावनात्म पीड़ा व्यक्त की गयी थी. राज्य सरकार ने 10 मौतों की पुष्टि की है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने लोगों से कहा है कि वायरस का प्रसार दूसरे राज्यों न फैले इसके लिए सारे इंतजाम किए गए हैं. केरल से सटे राज्यों को भी एलर्ट पर रखा है. दिल्ली आने वाली रेलगाड़ियों की विशेष निगरानी की जा रही है. लेकिन सरकारों के दावों पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं किया जा सकता है.

आम तौर पर देश में जब इस तरह की महामारी फैलती है तो सरकारों के दावें फिक्स डिपोजिट हो जाते हैं और बेगुनाह लोगों की जान चली जाती है. इसकी वजह है कि हम जमींनी स्तर पर संक्रमित बीमारियों से निपटने के लिए कोई दीर्घकालिक समाधान नहीं ढूंढते हैं. सिर्फ बयानबाजी से काम चलाने की आदत पालते हैं.

इसकी पोल इसी से खुलती है कि केरल में बीमारी के फैलने की सूचना हमारे स्वास्थ्य तंत्र के पास नहीं थी. इसकी जानकारी हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से मिली. निपाह से राज्य में 12 से अधिक लोगों की मौत हो जाती है, जिसमें एक नर्स भी शामिल है. इसके पूर्व क्या कोई आवश्यक कदम उठाए गए?

हमें यह मालूम हो गया कि राज्य में निपाह ने दस्तक दी है तो एक मौत के बाद हम क्या कर रहे थे, फिर 12 से अधिक मौतें कैसे हुई? बावजूद हम देश के लोगों को चिंतामुक्त रहने की झूठी दिलाशा दे रहे हैं, जबकि जमीनी सच्चाई है कि हम अपनी नर्स तक को नहीं बचा पाए.

निपाह एक तरह का दिमागी बुखार है, जिसका संक्रमण तेजी से फैलता ह. चिकित्सा शोध से पता चलता है कि यह चमगादड़ और सूअर के जरिए इंसानों में तेजी में फैलता है. जो फल चमगादड़ या सूअर के संपर्क में आते हैं, उन्हीं के जरिए यह बीमारी इंसानों तक पहुंचती है. संक्रमण के 48 घंटे के भीतर यह व्यक्ति को कोमा में पहुंचा देती है. इसकी जद में जो भी व्यक्ति आता है उसे सांस लेने में दिक्कत के साथ सिर में भयानक पीड़ा और तेज बुखार होता है.

कहा जाता है कि इस वायरस की पहचान 1998 में सबसे पहले मलेसिया में हुई थी. उस वक्त इस बीमारी की चपेट में 250 से अधिक लोग आए थे. 40 फीसदी से अधिक लोगों की मौत हो गई थी.

अभी तक बीमारी से लड़ने के लिए देश में किसी भी प्रकार के टीके या वैक्सीन का इजाद नहीं हुआ है. वायरस की जांच के लिए सिर्फ पुणे में एक प्रयोगशाला है. फिर हम यह कैसे दावा करते हैं कि निपाह से लड़ने के लिए सारी तैयारियां मुकम्मल हैं.

दिमागी बुखार का नाम आते ही यूपी के गोरखपुर और बिहार के तराई इलाकों की तस्वीर उभरने लगती है, जिसका समाधान हम आज तक नहीं खोज पाए हैं. इंसेफलाइटिस यानी दिमागी बुखार से अब तक हजारों मौतें हो चुकी हैं. लेकिन सरकार अभी तक दिमागी बुखार का संपूर्ण इलाज नहीं ढूंढ पाई हैं.

गोरखपुर में सैकड़ों की संख्या में मासूमों की मौत इस बीमारी से होती है. बीरआडी मेडिकल कालेज का आक्सीजन कांड अभी आपके दिमाग में पूरी तरह सुरक्षित होगा. मस्तिष्क ज्वर से आक्सीजन न मिलने की वजह से यहां सैकड़ो की संख्या में बच्चों की मौत हुई थी, जबकि यह मेडिकल कालेज यूपी के मुख्मंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह जनपद में पड़ता है. जमीनी सच्चाई है कि आज तक हमारे पास दिमागी बुखार का कोई हल नहीं निकल पाया है. फिर दूसरे दिमागी बुखार से निपटने की झूठी वकालत क्यों करते हैं.

हमारे लिए निपाह ही नहीं स्वाइन, डेंगू और दूसरी संक्रमित बीमारियां भी हैं जिसके संक्रमण को रोकने का हमारे पास कोई कारगर और त्वरित उपाय फिलहाल नहीं है. सरकारें स्वास्थ्य पर करोड़ों का बजट उपलबध कराती हैं, लेकिन वक्त आने पर हम फेल हो जाते हैं.

देश में डेंगू से हजारों मौतें होती हैं, लेकिन दोबारा इसकी पुर्नरावृत्ति न हो इसके लिए हमारे पास कोई ठोस नीति नहीं हैं. हम नाम बदल कर कार्यशैली नहीं बदल सकते हैं. योजना आयोग को हमने नीति आयोग बना दिया. लेकिन क्या नीति आयोग इस तरह की संक्रमित बीमारियों के निपटने लिए कोई ठोस उपाय लेकर आया.

सरकारों ने स्वास्थ्य क्षेत्र में क्या कोई आयोग अलग से गठित कियां. इस तरह जो स्वतंत्र रुप से काम करें और दुनिया में फैलने वाली ऐसी संक्रमित बीमारियों को देश फैलने ही न दे. संक्रमण के आतंक को समझना होगा. हमारी प्राथमिकता में राजनीति नहीं राजधर्म होना चाहिए. आधुनिक राजनीति की दौर में चुनावों के दौरान राजनीतिक दल भारी भरकम वादों का अंबार लगा देते हैं, लेकिन सत्ता में आने की के बाद उनकी नीतियों में बदलाव हो जाता है.

जनता के साथ किए गए वायदे भूला दिए जाते हैं. तंत्र में गण हासिये पर चला जाता है. राजनीतिक दल मनमाफिक फैसले लेते हैं, जिसकी वजह से आम लोगों की उम्मीदों पर पानी फिर जाता है. जमीनी हीकत है कि देश में हर साल संक्रमित बीमारियों से बेगुनाह लोगों की जान जाती है. बीमारियों हमले और मीडिया में खींचाई के बाद एक बाद सरकार जागती है इके बाद वह फिर गहरी नींद में होती है. वह समस्या का अस्थायी हल नहीं निकला चाहती है, जिसकी वजह से लोगों की परेशानियां बढ़ जाती हैं.

सरकारी अस्पतालों में सस्ते इलाज और संक्रमित बीमारियों से बचने के लोक लुभावन बातें की जाती हैं, लेकिन धरातल पर इस तरह का कुछ नहीं दिखता है. बेचारी जनता और पीड़ित लोग इलाज और चिकित्सकीय देख भाल के अभाव में दमतोड़ देते हैं.

जरा सोचिए, यह मौत उन परिवारों के लिए कितनी पीड़ादायक होती है. अभी निपाह का हमला हुआ है, कल जापानी बुखार और डेंगू मुंह बाए खड़ा है. तभी कोई न कोई विदेशी धरती से जानलेवा वायरस हमला कर देगा और हम सिर्फ निजात के लिए खोखली नीतियां ही बनाते रहेंगे.

अब वक्त आ गया है, जब स्वास्थ्य सेवाओं को और बेहतर बनाने के लिए अलग से शोध संस्थान और आयोग गठित किए जाएं. जमीनी स्तर की नीतियां बनाई जाएं. संक्रमित बीमारियों से निजात के लिए स्थायी हल निकाला जाए. सरकार को अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझनी होगी. देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का समुचित विकास करना होगा. जब तक इस पर गौर नहीं किया जाएगा, स्थिति नहीं सुधने वाली है.

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