लॉकडाउन आपातकाल जैसा नहीं, जमानत का अधिकार नहीं छीन सकते: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र द्वारा घोषित राष्ट्रव्यापी बंद आपातकाल की घोषणा के समान नहीं है और पुलिस द्वारा निर्धारित समय के अंदर आरोप पत्र दाखिल करने में विफल रहने पर अभियुक्त को जमानत के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र द्वारा घोषित राष्ट्रव्यापी बंद आपातकाल की घोषणा के समान नहीं है और पुलिस द्वारा निर्धारित समय के अंदर आरोप पत्र दाखिल करने में विफल रहने पर अभियुक्त को जमानत के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के इस निर्णय को दरकिनार कर दिया, जिसमें निर्धारित समय में आरोप पत्र (चार्जशीट) दाखिल न होने के बावजूद जमानत से इनकार कर दिया गया था. न्यायाधीश अशोक भूषण, एम. आर. शाह और वी. रामसुब्रमण्यम की शीर्ष अदालत की एक पीठ ने कहा कि मद्रास हाईकोर्ट का विचार है कि लॉकडाउन के दौरान लगाए गए प्रतिबंधों में किसी अभियुक्त को स्वत: (डिफॉल्ट) जमानत का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए, भले ही आरोप पत्र धारा 167 (2) के तहत निर्धारित समय के भीतर दायर नहीं किया गया हो.
पीठ ने कहा कि यह 'स्पष्ट रूप से गलत' है और कानून के अनुसार नहीं है. एडीएम जबलपुर मामले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को आपातकाल में भी निलंबित नहीं किया जा सकता है. शीर्ष अदालत ने कहा, "अभियोजन पक्ष का दावा है कि इस अदालत के 23 मार्च के आदेश से धारा 167 सीआरपीसी के तहत आरोप पत्र दाखिल करने की अवधि विशेष रूप से खारिज कर दी गई. यह भी पढ़े: Vande Bharat Mission: केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी बोले-कोरोना लॉकडाउन के बीच वंदे भारत मिशन के तहत विदेश में फंसे 2 लाख 75 हजार भारतीयों को वापस लाया गया
पीठ ने कहा कि हमारा यह स्पष्ट मानना है कि मद्रास हाईकोर्ट की एकल खंडपीठ ने अपने निर्णय में लॉकडाउन (राष्ट्रव्यापी बंद) को आपातकाल के बराबर मानकर गलती की है. पीठ ने उल्लेख किया कि लॉकडाउन के दौरान लगाए गए कोई भी प्रतिबंध किसी अभियुक्त के अधिकारों पर प्रतिबंध के रूप में काम नहीं करेंगे, क्योंकि यह धारा 167 (2) द्वारा संरक्षित है, जिसमें निर्धारित समय के भीतर चार्जशीट न जमा करने पर डिफॉल्ट जमानत पाने के अधिकार के बारे में बताया गया है.
पीठ ने कहा, "एकल न्यायाधीश द्वारा दिए गए फैसले को न केवल गलत माना गया है, बल्कि राज्य और अभियोजन पक्ष को गलत संकेत भी दिए गए हैं, जिससे उन्हें किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को भंग करने के लिए उकसाया जाता है. अदालत ने हाईकोर्ट के फैसले को दरकिनार करते हुए निर्देश दिया कि अपीलकर्ता को ट्रायल कोर्ट की संतुष्टि के लिए दो जमानत के साथ 10,000 रुपये के निजी मुचलके के बाद डिफॉल्ट जमानत पर रिहा किया जाए.