आनंद मोहन की रिहाई का अधिकारियों के मनोबल पर क्या असर होगा
बिहार में जेल मैनुअल के नियमों में बदलाव कर आनंद मोहन सिंह जैसे अपराधियों की रिहाई का रास्ता बना दिया गया है.
बिहार में जेल मैनुअल के नियमों में बदलाव कर आनंद मोहन सिंह जैसे अपराधियों की रिहाई का रास्ता बना दिया गया है. इस रिहाई का बिहार के अधिकारियों के मनोबल पर क्या असर होगा?बिहार में जेल मैनुअल में बदलाव के बाद बिहार राज्य दंडादेश परिहार परिषद द्वारा उन लोगों को भी सजा में छूट दी जा सकेगी जो काम पर तैनात सरकारी सेवक की हत्या के आरोप में सजा काट रहे हैं. इस बदलाव का तत्काल फायदा पूर्व सांसद और बाहुबली नेता आनंद मोहन सिंह को मिला. वे गुरुवार की सुबह रिहा हो गए. आनंद मोहन सिंह गोपालगंज के डीएम की हत्या मामले में सहरसा जेल में 15 साल से अधिक समय से उम्रकैद की सजा काट रहे थे. 14 साल से अधिक समय तक जेल में रहने के बावजूद उनकी रिहाई नहीं हो पा रही थी.
2016 में जेल मैनुअल के नियम 481 में यह जोड़ा गया था कि काम पर तैनात सरकारी सेवक की हत्या जैसे मामलों में जिन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली हो, वे रिहा नहीं होंगे. 10 अप्रैल 2023 को काम पर तैनात सरकारी सेवक की हत्या वाले अंश को हटा दिया गया. सेवा शर्तों के कारण इस संशोधन का मुखर विरोध नहीं हो रहा किंतु, जेल मैनुअल में किए गए इस विशेष संशोधन से राज्य के पुलिस व प्रशासनिक महकमे में बेचैनी है. आखिर इन अपराधियों को सजा दिलाना इतना आसान नहीं था. इसके अलावा जब राज्य में अधिकारियों की हत्या करने वाले अपराधी छूट रहे हैं तो फिर आम लोगों का क्या?
आईएएस एसोसिएशन ने विरोध किया
केंद्रीय आईएएस एसोसिएशन ने जेल मैनुअल में किये गये संशोधन का विरोध करते हुए अपने ट्वीट में इसे निराश करने वाला फैसला बताया है. एसोसिएशन का कहना है कि उन्होंने एक पब्लिक सर्वेंट की हत्या की थी. ऐसे फैसले से लोक सेवकों के मनोबल में गिरावट आती है, सार्वजनिक व्यवस्था कमजोर होती है और न्याय-प्रशासन का मखौल बनता है. एसोसिएशन ने राज्य सरकार से इस फैसले पर दोबारा विचार करने की मांग की है.आंध्र प्रदेश के आईएएस एसोसिएशन ने भी सरकार से यही अपील की है.
नीतीश कुमार के यू-टर्न के क्या हैं मायने
डीएम जी. कृष्णैया की पत्नी उमा जी. कृष्णैया ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार से बातचीत में कहा, ‘‘नीतीश जी को अच्छे लोग नहीं मिले इसलिए आनंद मोहन को रिहा कर रहे हैं. कुछ राजपूत वोटों के लिए उन्होंने ऐसा किया है. वे ऐसा करके गलत मिसाल कायम कर रहे हैं. इससे अपराधियों को सरकारी कर्मचारियों पर हमला करने की ताकत मिलेगी, क्योंकि उन्हें पता है कि वे आसानी से जेल से बाहर आ जाएंगे.'' वह इस फैसले के खिलाफ अब सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रही हैं. उन्होंने इस मामले में प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप करने की भी गुहार लगाई है.
इस संबंध में बिहार सरकार द्वारा बिहार कारागार नियमावली, 2012 में किए संशोधन संबंधी अधिसूचना को निरस्त करने के लिए पटना हाईकोर्ट में एक लोकहित याचिका (पीआईएल) भी दायर की गई है. सामाजिक कार्यकर्ता अमर ज्योति द्वारा अधिवक्ता अलका वर्मा के जरिए दायर इस याचिका में कहा गया है कि यह अधिसूचना आम जनता तथा काम पर तैनात लोक सेवकों के मनोबल को गिराती है.
सिस्टम पर क्या असर होगा
राजनीतिक समीक्षक डॉ. वीके सिंह का मानना है कि इस फैसले का पूरे सिस्टम पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा. वे कहते हैं, ‘‘शराबबंदी के बाद पुलिस पर हमले बढ़ गए हैं. शायद ही किसी दिन उत्पाद विभाग या पुलिस की टीम पर हमला कर धंधेबाज या वारंटी को छुड़ाने की खबर नहीं सुनने को मिलती हो. हाल में ही बालू माफिया ने एक महिला खनन अधिकारी को घसीट-घसीट कर पीटा. ऐसी घटनाएं इन तत्वों के मनोबल बढने और कानून का खौफ कम होने की वजह से होती हैं.''
उधर राज्य सरकार की सहयोगी भाकपा (माले) ने अरवल के भदासी कांड में टाडा मामले में बंद छह कैदियों को छोडने की मांग की है. पार्टी कहना है कि सभी दलित, पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के हैं. इन्होंने 22 साल की सजा काट ली है. इन्हें भी रिहा किया जाए.
बिहार में दागियों के बगैर क्यों नहीं बनती सरकार
वहीं, रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी एस. के. भारद्वाज कहते हैं, ‘‘पुलिस को तो सरकार के बने कानून के अनुसार कार्रवाई करनी है. सरकारी कर्मियों वाला अंश हटा दिया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है. वैसे यह पूरी तरह कोर्ट और विधायिका का मामला है.'' राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) अभयानंद का मानना है कि इस संबंध में एक खुली चर्चा होनी चाहिए थी. समाज के जो भी अलग अलग तबके हैं, उन सबसे बात की जानी चाहिए थी. सबकी राय सामने आ जाती और यह अगर उचित होता तो बदलाव किया जा सकता था. या फिर एक आयोग गठित कर उसे समय दे दिया जाता. वे कहते हैं, ‘‘इस फैसले से सरकारी अधिकारी-कर्मचारी मानसिक तनाव में तो जरूर आ जाएंगे. इनके अलग-अलग बने एसोसिएशन को बुलाकर बात की जाती तो एक बेहतर समेकित निर्णय सामने आता.''
क्यों मेहरबान हुई बिहार की सरकार
राजनीतिक जानकारों की मानें तो 2024 के आम चुनाव और 2025 के विधानसभा चुनाव में राजपूत वोटरों को अपने पक्ष में करने की नीतीश-तेजस्वी की सरकार की रणनीति का यह एक हिस्सा है. बिहार में राजपूतों की आबादी करीब 5.2 प्रतिशत है. आनंद मोहन की सवर्ण खासकर राजपूतों पर अच्छी पकड़ है. हालांकि, इनका एकमुश्त वोट किसी भी पार्टी को नहीं मिलता है. फिर भी, इन्हें रिहा करने की वजह से राजपूत वोटरों की सहानुभूति का फायदा जेडीयू और आरजेडी को मिलने की संभावना है. अहम यह भी है कि रिहा होने वाले सात लोगों को अगले दो वर्ष तक हरेक महीने स्थानीय थाने पर हाजिरी लगाने को कहा गया है, जबकि आनंद मोहन को इससे मुक्त रखा गया है.
पत्रकार शिवानी सिंह कहती हैं, ‘‘जेल मैनुअल में संशोधन का समय तो यही बताता है कि अगले चुनावों को देखकर यह किया गया है. जिन 27 लोगों की रिहाई का आदेश आया है, उनमें भी जातिगत राजनीतिक समीकरण साफ परिलक्षित होता है. इनमें 13 लालू प्रसाद के एम-वाई समीकरण से संबंधित हैं तो चार गैर यादव हैं और सात सामान्य वर्ग के हैं.'' जी कृष्णैया दलित थे. दलित संगठन भी राज्य सरकार के इस फैसले से नाराज हैं.'
जेल मैनुअल में संशोधन का समाज और राजनीति की दशा-दिशा पर क्या असर पड़ेगा, यह तो समय बतायेगा, किंतु जी कृष्णैया की बेटी पद्मा का यह प्रश्न तो लाजिमी है, "आखिर मेरे पापा का मर्डर करने वाले को क्यों छोड़ा गया?"