Coronavirus: जांच से क्यों भागते हैं कोरोना के संदिग्ध मरीज़? जानें क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स

लोगों में यह विश्वास गहराई से घर कर चुकी है कि कोरोनावायरस के संक्रमण का पूरी दुनिया में फिलहाल कोई उपचार नहीं है. किसी रोगी अथवा संदिग्ध को 14 दिनों तक क्वारंटाइन में क्यों रखा जाता है.

प्रतिकात्मक तस्वीर (Photo Credits: Pixabay)

14 मार्च, नागपुर के मायो अस्पताल से कोविड-19 के चार संदिग्ध मरीज सबकी नजरें बचाकर भाग गए. बाद में पुलिस उन्हें तलाश कर अस्पताल ले आई. अंततः पुलिस की कड़ी निगरानी में चारों का कोविड-19 का टेस्ट हुआ. इनमें से कोई भी कोरोना वायरस का संक्रमित नहीं पाया गया. 18 मार्च 2020 सिडनी से दिल्ली IGI एयरपोर्ट पर उतरे पंजाब के मूल निवासी की जांच कर नोडल ऑफीसर ने उन्हें सफदरजंग अस्पताल भेजा. यहां प्रारंभिक जांच के बाद उन्हें आईसोलेशन वार्ड में एडमिट कर उनका सैंपल जांच के लिए भेजा गया था. थोड़ी देर बाद युवक किसी काम के बहाने बाहर आया और सातवीं मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर लिया.

28 मार्च इंदौर के एक सरकारी अस्पताल से रात कोरोना के दो मरीज (एक पॉजिटिव और दूसरा संदिग्ध) अस्पताल से भाग गए. अगले दिन सुबह पुलिस उन्हें पकड़ इंदौर के मनोरमा राजे टीबी अस्पताल में दुबारा भर्ती कराया गया. 11 अप्रैल, ग्रेटर नोएडा के एक युवक ने क्वारनटीन सेंटर से कूद कर जान दे दी. 32 वर्षीय मो. गुलज़ार ग्रेटर नोएडा के गलगोटिया इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग में बनाये गये क्वारनटीन होम में इलाज करवा रहा था, उसे 14 दिन के लिए क्वारनटीन में रखा गया था. ऐसे कई केस विदेशों में भी देखने-सुनने को मिले. इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता से भी कोविड-19 संक्रमित एक मरीज़ भाग निकला, और आज तक वहां की पुलिस उसे तलाश नहीं सकी.

मरीज को सदा के लिए परिवारिक विछोह का भय रहता है

इस तरह की घटनाएं जिसमें संदिग्ध व्यक्ति या तो भाग निकला अथवा आत्महत्या कर लिया, भारत के अलग-अलग हिस्सों से सामने आये. इन घटनाओं से एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि लोग टेस्ट से भाग क्यों रहे हैं? नई दिल्ली के एक चिकित्सक डॉ जीतेंद्र सिंह बताते हैं, जहां तक मेरा अब तक का अनुभव है, -रोगी अथवा संदिग्ध व्यक्ति को अस्पताल में इलाज के लिए मेडिकल स्टाफ की कड़ी निगरानी में रखा जाता है. उससे मिलने उसका कोई भी नाते-रिश्तेदार नहीं जाता अथवा जाना नहीं चाहता. अगर वह ठीक हो जाता है तो सुरक्षित घर वापस चला जाता है यदि मर जाता है तो अस्पताल के कर्मचारियों या संबंधित अधिकारियों द्वारा उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है. मृत्यु के बाद भी परिजन उसे देख नहीं पाते, संभवतया इसी भय या अवसाद का असर होता है कि वह मौका पाते ही भाग जाता है अथवा आत्महत्या करने के लिए मजबूर होता है. वैसे यह मेरा निजी विचार हो सकते हैं.

क्या कहते हैं मनोविश्लेषक

इस संदर्भ में दिल्ली से प्रकाशित एक नामचीन अखबार के मनोविश्लेषक का कहना है, लोगों में यह विश्वास गहराई से घर कर चुकी है कि कोरोनावायरस के संक्रमण का पूरी दुनिया में फिलहाल कोई उपचार नहीं है. किसी रोगी अथवा संदिग्ध को 14 दिनों तक क्वारंटाइन में क्यों रखा जाता है. अगर निगेटिव होते हुए भी क्वारंटाईन के दौरान वह किसी पॉजिटिव मरीज के संसर्ग में आ गया तो? वह ऐसा कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहता. लिहाजा वह वहां वहां से भागने की कोशिश करता है अथवा अवसाद का शिकार होकर मृत्यु को गले लगा लेना ज्यादा पसंद करता है. हांलाकि इस तरह की आत्महत्या की वजह मैं अवसाद को ही मानता हूं.

स्वास्थ्य विभाग की भी कुछ कमियां हैं

लखनऊ में प्राइवेट क्लीनिक चला रहे सीनियर मोस्ट डॉ. बीरेंद्र श्रीवास्तव बताते हैं, -कोविड-19 के संक्रमण पर नियंत्रण पाने की फिलहाल न कोई सटीक दवा आई है ना ही वैक्सीन. सामान्यतः सर्दी, जुकाम और बुखार तो मौसम परिवर्तन के कारण भी हो सकते हैं, जिसका इलाज घर पर रह कर करवाया जा सकता है. फिर वह अस्पताल में क्यों एडमिट हो. अलबत्ता मैं यह अवश्य कहना चाहूंगा कि मरीज को अपने घरेलू डॉक्टर के लगातार संपर्क में रहना चाहिए. यहां मुझे एक बात निजी रूप से खटकती है, कि स्वास्थ्य विभाग की तरफ से क्वारंटाइन अथवा आइसोलेशन शब्दों की विस्तृत व्याख्या नहीं की गयी है कि यह है क्या और संदिग्ध मरीज के सा चौदह दिनों तक क्वारंटाइन में क्या किया जाता है, उसका किस तरह इलाज होता है. इन बातों का स्वास्थ्य विभाग द्वारा सही तरीके से प्रचार-प्रसार किया जाये तो कुछ हद तक मरीजों के अस्पतालों से भागने का सिलसिला थम सकता है.

कोविड-19 के मरीज जिस गति से मृत्यु के शिकार बन रहे हैं, यह दहशत भी एक वजह हो सकती है उऩके अस्पताल से पलायन करने की. उनकी सोच में कोविड-19 से संक्रमित होने का सीधा अर्थ मृत्यु होता है. इसलिए क्वारंटाइन के लिये ले जाते समय उन्हें भय रहता है कि अगर उऩ्हें कोरोना पॉजिटिव मरीज के आसपास रखा गया तो? जैसा कि नागपुर के केस में सुनने को मिला था. इसके अलावा आज भी मरीज भारत के नामचीन अस्पतालों के तमाम दावों के बावजूद चिकित्सकों, सेवाकर्मियों आदि की लापरवाही, मर्ज की गंभीरता से न लेने के कारण उन पर आसानी से विश्वास नहीं कर पाता. डॉक्टर बीरेंद्र का कहना भी गलत नहीं है कि संदिग्ध मरीज को आइसोलेशन अथवा क्वारंटाइन जैसे शब्दों से भली भांति परिचित करवान आवश्यक है. यह कार्य स्वास्थ्य मंत्रालय के पीआर विभाग को गंभीरता से करना चाहिए. उन्हें संदिग्ध मरीजों को विश्वास में लेते हुए बताना चाहिए कि उनका इलाज किस पद्धति से होगा और किस तरह वे सुरक्षित घर जा सकेंगे. इसके अलावा सोशल मीडिया के प्रति भी सरकार को कठोर रवैया अपनाना चाहिए, जो आये-दिन कोरोनावायरस को लेकर अनाप-शनाप अफवाहें पोस्ट करते रहते हैं.

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