चीन के सहारे असमान छूने का ख्वाब देख रहा था श्रीलंका-पाकिस्तान, हो गया बर्बाद; ड्रैगन की BRI परियोजना को नकार कर भारत ने दिखाई थी समझदारी
नई दिल्ली: चीन (China) ने 'वन बेल्ट वन रोड' जिसे अब 'बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव' (बीआरआई) के नाम से जाता है, की शुरूआत साल 2013 में की थी और जिस तरह से कई देशों का इसने बेड़ा गर्क किया है, उसे देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि इसका एकमात्र उद्देश्य उन देशों को ड्रैगन के पंजे में फंसाना है. भारत ने निभाया वादा, श्रीलंका में नए साल के जश्न से पहले जहाज से पहुंचाया 11000 मीट्रिक टन चावल
ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां आर्थिक रूप से कमजोर देश, चाहे वे विकसित हों या विकासशील, वहां जब चीन ने बीआरआई की शुरूआत की तो वे ऋण के अथाह सागर में डूब गये, जिससे उनका निकलना लगभग नामुमकिन हो गया. सेंटर फोर ग्लोबल डेवलपमेंट ने वर्ष 2018 में ऐसे देशों पर शोध किया, जहां चीन की बीआरआई परियोजना पर काम हुआ है. शोध में यह खुलासा हुआ कि ऐसे 23 देश हैं, जो गंभीर ऋण संकट में फंस गये हैं.
इसका ताजा उदाहरण अभी श्रीलंका और पाकिस्तान हैं. दोनों भारत के पड़ोसी देश हैं और दोनों चीन की बीआरआई परियोजना के 'पोस्टर ब्वॉय' रहे हैं. श्रीलंका की आर्थिक स्थिति अब ऐसी हो गयी है कि वहां हर वस्तु की भारी कमी है और लोग महंगाई के कारण देश छोड़कर भाग रहे हैं.
श्रीलंका ने चीन से तीन से छह प्रतिशत की ब्याज दर पर ऋण लिया जबकि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की दर एक से तीन प्रतिशत होती है. श्रीलंका जब ऋण का भुगतान करने में असमर्थ हुआ तो उसने अपनी हिस्सेदारी चीन की कंपनियों को बेचनी शुरू कर दी.
चीन के इस भंवर में फंसकर श्रीलंका को अपना हम्बनटोटा बंदरगाह 99 साल की लीज पर चीन मर्चेट पोट होल्डिंग को देना पड़ा. यह एक रणनीतिक महत्व वाला बंदरगाह है लेकिन अब इसमें श्रीलंकाई सरकार की हिस्सेदारी न के बराबर है. श्रीलंका के बंदरगाह प्राधिकरण का इस बंदरगाह में 20 प्रतिशत हिस्सा है जबकि 80 प्रतिशत हिस्सा चीन की कंपनी का है.
इसी तरह चीन ने श्रीलंका की कोलंबो पोर्ट सिटी परियोजना में करीब 1.4 अरब डॉलर का निवेश किया, जो श्रीलंका के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा विदेशी निवेश है. इसे निजी सार्वजनिक भागीदारी के रूप में पेश किया गया. यह भागीदारी श्रीलंका सरकार और सीएचईसी पोर्ट सिटी कोलंबो के बीच थी और इसका प्रचार रोजगार की अपार संभावनायें प्रदान करने वाले और देश के लिये राजस्व के बड़े स्रोत के रूप में किया गया.
जो बात सार्वजनिक नहीं की गयी, वह थी इस परियोजना के लिये 269 हेक्टेयर भूमि पर कब्जा और सीपीसीसी की परियोजना में 43 प्रतिशत हिस्सेदारी. इसके लिये भी 99 साल का लीज समझौता किया गया है. यानी एक बार फिर हम्बनटोटा बंदरगाह की कहानी उसी देश में दोहरायी जा रही है.
श्रीलंका इसका जीता-जागता सबूत है कि किस तरह चीन बीआरआई की आड़ में देशों पर बेकार और बिना काम वाली परियोजनायें थोपता है और फिर उन्हें ऋण के जाल में उलझाकर पंगु बना देता है. वह उन देशों को उनकी जरूरतों के अनुसार परियोजनाओं के लिये राजी नहीं करता बल्कि वह ऐसी विशालकाय परियोजनाओं को लाता है, जिन पर भारी निवेश किया जाता है और वे चीन के लिये ही हितकारी होती हैं.
बीआरआई चीन को आसान और सुलभ अवसर देता है और उसके इस अवसर का भुगतान वह देश करते हैं, जहां परियोजनायें शुरू की जाती हैं. चीन का तरीका इस तरह का होता है कि उसकी सरकारी कंपनियां छोटे देशों की अर्थव्यवस्था को निचोड़ देती हैं और उन्हें देश को चलाने के लिये फिर ऋण दिया जाता है ताकि वक्त पड़ने पर इन देशों का इस्तेमाल किया जा सके.
चीन बीआरआई के तहत इन बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को बढ़ी-चढ़ी लागत के साथ पेश करता है लेकिन वह यह नहीं बताता कि इन परियोजनाओं को कैसे लागू किया जायेगा और इसकी क्या शर्ते होंगी.
श्रीलंका में 104 मिलियन डॉलर की लोटस टावर परियोजना कभी शुरू नहीं हुई और 209 मिलियन डॉलर की लागत से बना मत्ताला एयरपोर्ट दुनिया का सबसे खाली हवाईअड्डा है. हालांकि, सार्वजनिक रूप से इसके लिये निवेश चीन ने किया है लेकिन इसकी पूरी लागत चीन ने इस परियोजना में अपने लोगों और उपकरणों को लगाकर वसूल कर ली. यानी श्रीलंका ने ऐसी परियोजनाओं के लिये पैसा दिया, जिसकी उसे कोई जरूरत भी नहीं थी.
एक तरह से चीन श्रीलंका में पूरी तरह पूंजीवादी विचार से चल रहा है, जहां उसके सस्ते उत्पादों ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया है और उसकी बेकार परियोजनायें ने सरकार को चंगुल में ले लिया है ताकि उसका अधिक से अधिक रणनीतिक लाभ उठाया जा सके.
अब यह समझने की जरूरत है कि चीन के सभी समझौतों को पीछे उसका गुप्त एजेंडा होता है, उस देश की भूमि पर कब्जा करना और छोटे देश में विकास के नाम पर अपनी जेब भरना. चीन ने यही नीति अफ्रीका, एशिया और लातिन अमेरिकी देशों में भी अपनायी है.