आइसलैंड में पीएम समेत लाखों महिलाएं छुट्टी पर क्यों चली गईं
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

आइसलैंड की प्रधानमंत्री कातरीन कोब्सतोतिर आज हड़ताल पर हैं. उनके साथ देशभर की लाखों महिलाओं ने भी आज छुट्टी ली है. इसे आइसलैंड का "क्फेन्नाफ्री," यानी विमेंस डे ऑफ कहा जा रहा है.महिलाओं की इस देशव्यापी हड़ताल का मकसद है, वेतन में भेदभाव और लैंगिक हिंसा खत्म करना. इस आंदोलन का नारा है, "आप इसे बराबरी कहते हैं?" इस आंदोलन में महिलाओं के साथ नॉन-बाइनरी (जो खुद को महिला या पुरुष के खांचे में नहीं देखते-समझते) लोग भी शामिल हैं.

ऐसा नहीं कि इन महिलाओं ने बस दफ्तरी काम से छुट्टी ली हो. हड़ताल के आयोजकों ने देशभर की महिलाओं से वेतन और बिना-वेतन, दोनों तरह के काम में हड़ताल करने की अपील की है. घर का कामकाज भी हड़ताल का हिस्सा है.

प्रधानमंत्री ने भी एकजुटता दिखाई

कातरिन कोब्सतोतिर ने हड़ताली महिलाओं के साथ एकजुटता दिखाते हुए कहा कि वह आज काम पर नहीं जाएंगी और घर पर ही रहेंगी. स्थानीय मीडिया से बात करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, "जैसा कि आप जानते हैं, हम लैंगिक समानता के लक्ष्यों को पूरी तरह नहीं हासिल कर पाए हैं और हम अब भी लैंगिक आधार पर वेतन में भेदभाव का सामना कर रहे हैं. 2023 में यह स्थिति स्वीकार नहीं की जा सकती."

उन्होंने यह भी कहा, "इस दिन मैं काम नहीं करूंगी और मुझे उम्मीद है कि कैबिनेट की बाकी महिलाएं भी ऐसा ही करेंगी."

स्थानीय मीडिया के अनुसार, समान वेतन पर सरकार का पक्ष बताते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि वेतन के बीच का फासला बढ़ रहा है. ऐसे में सरकार इस बात पर विचार कर रही है कि किस तरह पारंपरिक तौर पर पुरुषों की बहुलता वाले पेशों की ही तरह, कथित महिला-प्रधान पेशों की भी अहमियत सुनिश्चित की जाए. इसके लिए चार सरकारी संस्थानों में एक खास योजना शुरू की गई है.

आइसलैंड का ऐतिहासिक "विमेंस डे ऑफ"

आज 24 अक्टूबर है. आज से ठीक 48 साल पहले इसी तारीख को आइसलैंड की महिलाओं ने एकसाथ एक दिन की छुट्टी ली थी. वो ऐतिहासिक घटना है. 24 अक्टूबर, 1975 को आइसलैंड की लगभग 90 फीसदी महिलाओं ने अपने दफ्तर और घर की जिम्मेदारियों से एक दिन की छुट्टी ले ली.

उनका मकसद ये दिखाना था कि महिलाएं, समाज और अर्थव्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा हैं. उनके बिना काम नहीं चल सकता. इसके बावजूद उन्हें पुरुषों के मुकाबले कम मेहनताना मिलता है. घर के भीतर और बाहर, दोनों ही जगह उनके काम की अहमियत कम आंकी जाती है. हड़ताल के माध्यम से वो देश और दुनिया को दिखाना चाहती थीं कि अगर औरतें काम ना करें, काम से गैर-हाजिर रहें, तो कितना फर्क पड़ता है.

और फर्क पड़ा भी!

इतना फर्क कि लोगों ने कल्पना भी नहीं की थी. उस रोज महिलाएं अपने काम पर नहीं गईं. उन्होंने घर में खाना नहीं बनाया. घर की सफाई जैसे दर्जनों काम जो रोजमर्रा का हिस्सा हैं, वो नहीं किया. यहां तक कि बच्चों को भी नहीं संभाला. हजारों की संख्या में महिलाएं सुबह घर से निकलीं और देर शाम वापस लौटीं. नतीजतन, उस दिन जैसे समूचे आइसलैंड का कामकाज ठप हो गया. पुरुषों को घर के जरूरी काम करने पड़े. कई तो बच्चों को साथ दफ्तर ले गए.

ब्रिटिश अखबार "दी गार्डियन" के एक पुराने लेख के मुताबिक, ज्यादातर दफ्तरवालों ने पिताओं के साथ आने वाले बच्चों के लिए तैयारियां की थीं ताकि बच्चों को बहलाया जा सके. चॉकलेट, पेंसिल और कागजों का इंतजाम किया गया, ताकि बच्चे खेल में लगे रहें और उनके पिता काम कर पाएं. कई स्कूल, दुकान और मछली के कारखाने उस महिला कामगारों के ना होने के कारण बंद रखने पड़े, जबकि कई ने आधी क्षमता के साथ काम किया.

उस वक्त आइसलैंड की आबादी सवा दो लाख से भी कम थी. तब भी, राजधानी रेक्याविक में करीब 25 हजार महिलाएं जमा हुईं. उन्होंने एक-दूसरे की बात सुनी. गीत गाए. एकजुटता दिखाई. अपने हक के लिए खुद आवाज उठाई. इनमें हर उम्र, हर दौर की औरतें शामिल थीं. स्कूल-कॉलेज जाने वाली लड़कियां भी साथ आई थीं.

इस ऐतिहासिक हड़ताल ने आइसलैंड में महिला अधिकार मजबूत करने में बड़ी भूमिका निभाई. 1976 में यहां की संसद ने समान काम के लिए समान वेतन की दिशा में एक कानून पारित किया. आंदोलन के पांच साल बाद 1980 में वीगदीश फिनबोआदॉगतिर देश की पहली महिला राष्ट्रपति चुनी गईं.

कहीं नहीं आई है समूची लैंगिक बराबरी

आइसलैंड दुनिया के प्रगतिशील देशों में गिना जाता है. लैंगिक समानता में भी इसका रुतबा है. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) 2006 से सालाना ग्लोबल जेंडर गैप रैंकिंग निकालता है. इसमें लैंगिक बराबरी के मापदंड पर देशों को क्रम दिया जाता है. हालांकि अभी कोई भी देश पूरी तरह से लैंगिक समानता हासिल नहीं कर सका, लेकिन आइसलैंड 14 साल से पहले नंबर पर है.

2023 की सूची में उसे 91.2 नंबर मिले. पाया गया कि आइसलैंड ने कई मामलों में अपनी स्थिति बेहतर की है, लेकिन वेतन में समानता और वरिष्ठ अधिकारियों में प्रतिनिधित्व के मामले में 2021 से ही कमी आई है. 2023 की इस सूची में जर्मनी छठे नंबर पर है.

146 देशों की सूची में भारत का क्रम 127 है. डब्ल्यूईएफ की रिपोर्ट के मुताबिक, आर्थिक भागीदारी और अवसरों तक पुरुषों और महिलाओं की बराबर पहुंच के मामले में सबसे खराब स्थिति वाले देशों में भारत भी है. 40 फीसदी से भी कम समानता वाले इन देशों में भारत के अलावा अफगानिस्तान, अल्जीरिया, ईरान और पाकिस्तान हैं.

सूची में टॉप पर होने से आइसलैंड की महिलाएं संतुष्ट नहीं हैं. वहां सफाई, बच्चों की देखभाल और नर्सिंग जैसी नौकरियां जहां महिला कामगारों की संख्या ज्यादा है, उनमें अब भी वेतन कम है. कुछ ऐसे भी पेशे हैं, जिनमें आइसलैंड की महिलाओं को पुरुष कामगारों की तुलना में 21 फीसदी तक कम वेतन मिलता है.

इसके अलावा लैंगिक हिंसा भी एक बड़ी चिंता है. यूनिवर्सिटी ऑफ आइसलैंड के एक अध्ययन में 40 फीसदी से भी ज्यादा महिलाओं ने लैंगिक या यौन हिंसा के अनुभव की बात कही. आंदोलनकारी कह रहे हैं कि भले ही आइसलैंड को समानता का स्वर्ग कहा जाता हो, लेकिन अब भी लैंगिक असमानता खत्म नहीं हुई है.