विदेश की खबरें | इजराइल-फलस्तीन संघर्ष में अंतरराष्ट्रीय कानून कहां उपयुक्त बैठता है?
Get Latest हिन्दी समाचार, Breaking News on world at LatestLY हिन्दी. टोरंटो, 15 अक्टूबर (द कन्वरसेशन) इजराइल-फलस्तीन संघर्ष के बारे में सोचना कभी आसान नहीं होता। लेकिन घोषणाओं की बढ़ती संख्या इस बात पर प्रकाश डालती है कि लागू कानून के तहत स्थिति का आकलन करने में शामिल कारकों पर विचार करना कितना महत्वपूर्ण है।
टोरंटो, 15 अक्टूबर (द कन्वरसेशन) इजराइल-फलस्तीन संघर्ष के बारे में सोचना कभी आसान नहीं होता। लेकिन घोषणाओं की बढ़ती संख्या इस बात पर प्रकाश डालती है कि लागू कानून के तहत स्थिति का आकलन करने में शामिल कारकों पर विचार करना कितना महत्वपूर्ण है।
किसी भी संघर्ष का समाधान राजनीतिक होता है, लेकिन सबसे जरूरी तथ्य यह है कि सशस्त्र संघर्ष का समाधान अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के तहत होना चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून को हालांकि कभी-कभी कम प्रभावी माना जाता है, हमें इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि इसको लागू करना यह सुनिश्चित करता है कि नागरिक जीवन सुरक्षित रहे।
लावल विश्वविद्यालय के विधि संकाय में प्रोफेसर और ‘इंस्टीट्यूट डी रीचर्चे स्ट्रैटेजिक डे ल'इकोले मिलिटेयर’ (पेरिस में स्थित संघर्ष और शांति अध्ययन के लिए एक अनुसंधान केंद्र) की वैज्ञानिक निदेशक के रूप में, मैं अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून में विशेषज्ञ हूं और पेरिस मानवाधिकार केंद्र की सदस्य हूं।
संघर्ष का वर्गीकरण
अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून में कोई भी कानूनी विश्लेषण करने से पहले उठाया जाने वाला पहला कदम स्थिति को वर्गीकृत करना है।
मैंने 2012 में तर्क दिया कि इजराइली सैनिकों की एकतरफा वापसी के बावजूद, गाजा पट्टी का क्षेत्र इजराइल के कब्जे में रहा। दरअसल, जब 2004 में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने कहा कि इजराइल इस क्षेत्र में सत्ता पर काबिज होने की स्थिति के आधार पर अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून लागू करने के लिए बाध्य है, तो इजराइल ने 2005 में गाजा से अपने सैनिकों को वापस बुला लिया।
हमास और इजराइल के बीच 2005 के बाद से नियमित आधार पर झड़पें और टकराव होते रहे हैं। सात अक्टूबर की संघर्ष की घटनाओं के बाद इस आकलन के बदलने की संभावना नहीं है।
संघर्ष को चाहे किसी भी तरीके से चित्रित किया जाए, यह कहने की जरूरत नहीं है कि जानबूझकर नागरिकों को निशाना बनाने और बंधक बनाने की गतिविधियों की अनुमति नहीं होनी चाहिए।
इसी तरह, चाहे संघर्ष को कितना भी जायज क्यों न ठहराया जाये, यह देखना कठिन है कि गाजा पट्टी की ‘‘संपूर्ण घेराबंदी’’ की घोषणा अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के अनुरूप कैसे हो सकती है। ‘घेराबंदी’ एक ऐसी धारणा नहीं है, जिसका जिक्र अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून में व्यापक रूप से किया गया है।
हालांकि, घेराबंदी निषिद्ध नहीं है, लेकिन इसके प्रभाव अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के उल्लंघन का कारण बनते हैं। उदाहरण के लिए, भोजन उपलब्ध कराने या पानी की आपूर्ति रोकने से क्षेत्र में रहने वाली आबादी भूख से मर सकती है। अकाल को युद्ध की एक विधि के रूप में इस्तेमाल करना निषिद्ध है। इसी प्रकार, लोगों की आवाजाही को प्रतिबंधित करने या रोकने का मतलब है कि मानवीय कर्मी प्रभावित क्षेत्र में अपना राहत कार्य नहीं कर सकते हैं।
मानवीय संगठनों को हालांकि नागरिक आबादी को सहायता पहुंचाने की अनुमति दी जानी चाहिए और अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के अनुसार, संघर्ष में शामिल पक्षों को ‘‘उनके मार्ग को सुगम बनाना’’ चाहिए।
ऐसी स्थिति में यह वैध सवाल खड़ा होता है कि अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून कितना प्रभावी है।
इस संबंध में याद रखने की बात यह है कि तीसरे देश, यानी वे देश, जो इस सशस्त्र संघर्ष के पक्षकार नहीं हैं, उनका दायित्व है कि वे ‘‘अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के प्रति सम्मान सुनिश्चित करें।’’
(द कन्वरसेशन)
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