देश की खबरें | सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में राज्य का महत्वपूर्ण हित: न्यायालय

Get Latest हिन्दी समाचार, Breaking News on India at LatestLY हिन्दी. उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों में धार्मिक शिक्षा के अलावा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने में सरकार का महत्वपूर्ण हित है, ताकि छात्र उत्तीर्ण होने के बाद एक ‘सभ्य’ जीवन जी सकें।

नयी दिल्ली, 21 अक्टूबर उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों में धार्मिक शिक्षा के अलावा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने में सरकार का महत्वपूर्ण हित है, ताकि छात्र उत्तीर्ण होने के बाद एक ‘सभ्य’ जीवन जी सकें।

भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने पांच अप्रैल को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले पर रोक लगाकर लगभग 17 लाख मदरसा छात्रों को राहत प्रदान की थी, जिसमें उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 को "असंवैधानिक" और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करने वाला बताते हुए उसे रद्द कर दिया गया था।

पीठ ने फैसले के खिलाफ विभिन्न याचिकाओं पर अंतिम सुनवाई शुरू करते हुए याचिकाकर्ताओं की ओर से अभिषेक मनु सिंघवी, सलमान खुर्शीद और मेनका गुरुस्वामी सहित वरिष्ठ अधिवक्ताओं की दलीलें सुनीं।

प्रधान न्यायाधीश ने मौखिक रूप से कहा, "मदरसों में उत्कृष्ट शिक्षा की एक निश्चित गुणवत्ता बनाए रखने में राज्य सरकार की महत्वपूर्ण रुचि है। धार्मिक शिक्षा के अलावा व्यापक शिक्षा प्रदान करने में उनकी महत्वपूर्ण रुचि हो सकती है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि संस्थान से उत्तीर्ण होने के बाद छात्र एक सभ्य जीवन जी सकें।"

पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 28 और 30 का भी उल्लेख किया, जो अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार से संबंधित है।

अनुच्छेद 28 का उल्लेख करते हुए पीठ ने कहा, "सरकार के धन से पूरी तरह से संचालित किसी भी शैक्षणिक संस्थान में कोई धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी।"

वरिष्ठ अधिवक्ता सलमान खुर्शीद ने कहा कि अनुच्छेद 28 के अंतर्गत आने के लिए मदरसों को सरकारों द्वारा पूरी तरह से वित्तपोषित किया जाना चाहिए, जबकि ऐसे संस्थानों को आंशिक रूप से वित्तपोषित किया जाता है। इसके तहत सरकारें केवल शिक्षकों को वेतन देती हैं।

शुरुआत में पीठ ने उच्च न्यायालय के आदेश और राज्य कानून का अवलोकन किया।

गुरुस्वामी ने कहा कि उच्च न्यायालय ने इस मुद्दे की शुरुआत सेवा मामले की तरह की और फिर स्वत: संज्ञान लेते हुए गलत तरीके से अधिनियम को धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करने वाला ठहराया।

पीठ ने पूछा कि जब मदरसा बोर्ड पाठ्यक्रम की सामग्री, शिक्षकों की सेवा की शर्तों और अन्य आवश्यकताओं को नियंत्रित करता है, तो अधिनियम को असंवैधानिक क्यों ठहराया गया।

पीठ ने पूछा कि क्या मदरसों को संस्कृत, हिंदी, प्रारंभिक गणित, सामाजिक विज्ञान आदि विशेष विषयों को पढ़ाने या न पढ़ाने का विवेकाधिकार है।

वरिष्ठ अधिवक्ता ने जवाब दिया, "(उप्र) मदरसा बोर्ड यह सुनिश्चित कर रहा है कि मदरसों का विवेकाधिकार खत्म हो जाए।"

न्यायमूर्ति पारदीवाला ने टिप्पणी की कि उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान इसलिए लिया होगा, क्योंकि उसे लगा होगा कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के बजाय केवल धार्मिक शिक्षा दी जा रही है।

पीठ ने कहा कि मदरसे केवल प्रमाण पत्र दे रहे हैं और डिग्री नहीं दे रहे हैं।

सीजेआई ने कहा, "एक पारसी संस्थान या एक बौद्ध संस्थान चिकित्सा पाठ्यक्रम पढ़ा सकता है, जरूरी नहीं कि वह केवल धार्मिक शिक्षा ही दे।"

सुनवाई 22 अक्टूबर को फिर से शुरू होगी।

उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगाते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि याचिकाओं में उठाए गए मुद्दों पर गहन विचार-विमर्श किया जाना चाहिए और उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ याचिकाओं पर केंद्र, उत्तर प्रदेश सरकार और अन्य को नोटिस जारी किए थे।

याचिकाकर्ताओं ने उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड की संवैधानिकता को चुनौती दी थी और साथ ही शिक्षा विभाग के बजाय अल्पसंख्यक कल्याण विभाग द्वारा मदरसों का प्रबंधन किए जाने पर भी आपत्ति जताई थी।

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