देश की खबरें | वकील की सेवा उपभोक्ता कानून के दायरे में नहीं आ सकती, न्यायालय को बताया गया
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नयी दिल्ली, 15 फरवरी उच्चतम न्यायालय को बृहस्पतिवार को बताया गया कि वकील डॉक्टरों और अस्पतालों के विपरीत अपने काम का विज्ञापन नहीं कर सकते ना ही काम मांग सकते, इसलिए उनकी सेवाओं को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत नहीं लाया जा सकता है।
वकील और डॉक्टर द्वारा प्रदान की गई सेवाओं के बीच अंतर करते हुए, बार निकायों और अन्य व्यक्तियों की ओर से पेश वरिष्ठ वकील नरेंद्र हुडा ने न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ को बताया कि सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, एक वकील का कर्तव्य अदालत के प्रति कानून के निष्पादन में उसकी सहायता करना है, न कि अपने मुवक्किल की।
बार काउंसिल ऑफ इंडिया, दिल्ली हाई कोर्ट बार एसोसिएशन और बार ऑफ इंडियन लॉयर्स जैसे बार संगठनों और अन्य लोगों की कुछ याचिकाओं में राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) के 2007 के फैसले को चुनौती दी गई है, जिसने फैसला सुनाया कि अधिवक्ता और उनकी सेवाएं उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के दायरे में आते हैं।
अदालत ने बुधवार को टिप्पणी की थी कि अगर डॉक्टरों पर खराब सेवा और लापरवाही तथा सेवा में कमी के लिए मुकदमा दायर किया जा सकता है, तो वकीलों पर इसके लिए मुकदमा क्यों नहीं किया जा सकता है। इस पर जवाब देते हुए हुडा ने कहा, ‘‘किसी डॉक्टर के क्लिनिक को बड़े अस्पताल की तरह एक वाणिज्यिक इकाई के रूप में माना गया है जो अपना विज्ञापन कर सकते हैं। उन पर कोई रोक नहीं है।’’
हुडा ने कहा, ‘‘हालांकि, वकीलों पर अपने काम का विज्ञापन करने पर रोक है। वे काम नहीं मांग सकते और अधिवक्ता अधिनियम 1961 के तहत अपनी सेवा के पारिश्रमिक के रूप में मुकदमे की संपत्ति में हिस्सा नहीं ले सकते।’’
एनसीडीआरसी के फैसले पर आपत्ति जताते हुए, हुड्डा ने कहा कि 1961 के कानून के तहत लगाए गए प्रतिबंधों के कारण वकील डॉक्टरों या किसी अन्य पेशेवर की तुलना में अलग स्तर पर खड़े हैं। उन्होंने कहा कि पेशेवर कदाचार के लिए, वादी को अदालत का रुख करने के विकल्प के अलावा, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के पास शिकायत दर्ज करने के लिए पहले से ही एक उपाय प्रदान किया गया है।
हुडा ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है कि वकीलों को किसी वादी द्वारा दायर शिकायत के खिलाफ छूट प्राप्त है। नुकसान के संबंध में दीवानी अदालत का रुख किया जा सकता है।’’
उन्होंने कहा कि जब अधिवक्ता अधिनियम 1961 में लागू हुआ, तब उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 मौजूद नहीं था। उन्होंने यह भी कहा कि 1986 के कानून की कल्पना शक्तिशाली कंपनियों से एक छोटे उपभोक्ता के हितों की रक्षा के लिए बिल्कुल अलग इरादे से की गई थी। मामले में अब 21 फरवरी को दलीलें रखी जाएंगी।
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