रूस की युद्ध अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में भारत की क्या भूमिका है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच बातचीत के दौरान भारत तटस्थ रहना चाहता है और रूस के साथ व्यापार बढ़ाना चाहता है.

प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच बातचीत के दौरान भारत तटस्थ रहना चाहता है और रूस के साथ व्यापार बढ़ाना चाहता है.यूक्रेन पर मॉस्को द्वारा हमले के मद्देनजर रूसी कच्चे तेल के आयात में वृद्धि के लिए भारत को पश्चिम में बहुत आलोचना झेलनी पड़ी. दुनिया के तीसरे सबसे बड़े तेल आयातक ने सस्ते कच्चे तेल के कारण 2022 में रूस से डिलीवरी में दस गुना वृद्धि देखी और पिछले साल फिर से इसमें दोगुनी वृद्धि देखने को मिली. इसी दो साल की अवधि में रूस से भारत का कोयला आयात तीन गुना बढ़ गया.

पुतिन की युद्ध मशीन को फंडिंग करने के आरोपों के बावजूद, नई दिल्ली ने मॉस्को के साथ भारत के पारंपरिक "स्थिर और दोस्ताना" संबंधों और आयातित तेल पर भारत की भारी निर्भरता का हवाला देकर इस बढ़ोतरी को उचित ठहराया.

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार को 22वें भारत-रूस वार्षिक सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए मॉस्को पहुंचे. रूस दौरे के दौरान मोदी की मुलाकात राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से होगी. तीसरी बार सत्ता संभालने के बाद यह मोदी का पहला रूस दौरा और पहला द्विपक्षीय दौरा भी है.

मोदी के दौरे के दौरान क्रेमलिन रूस की कमोडिटी-निर्भर अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और यूक्रेन युद्ध पर पश्चिमी प्रतिबंधों के प्रभाव को कम करने के लिए दक्षिण एशियाई शक्ति के साथ व्यापार को और बढ़ाने की कोशिश करेगा.

रूसी सरकार के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने वार्ता की घोषणा करते हुए एक बयान में कहा था कि पुतिन और मोदी अपनी बैठक के दौरान क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा के अलावा व्यापार जैसे एजेंडे पर बात करेंगे.

भारत-रूस संबंध कितने मजबूत

रूस के मामले में भारत को एक नाजुक रास्ते पर चलना होगा क्योंकि उसका लक्ष्य पश्चिम के साथ मजबूत संबंध बनाए रखना, मॉस्को के साथ नए व्यापारिक संबंध बनाना और यूक्रेन युद्ध पर तटस्थ रुख बनाए रखना है.

डीडब्ल्यू ने भारत-रूस व्यापार संबंधों की मौजूदा स्थिति पर नजर डाली है और यह भी जानने की कोशिश की कि दोनों नेता किन मुद्दों पर सहमत हो सकते हैं.

भारत और जर्मनी दे रहे हैं आपसी रक्षा संबंध बढ़ाने पर जोर

शीत युद्ध के दौर से सोवियत संघ भारत का करीबी रहा है. सोवियत संघ और भारत ने रक्षा और व्यापार के लिए एक रणनीतिक साझेदारी बनाई जो साम्यवाद के अंत के बाद भी जारी रही. 2000 में तत्कालीन रूसी प्रधानमंत्री पुतिन ने नई दिल्ली के साथ सहयोग की एक नई घोषणा पर हस्ताक्षर किए थे.

भारत रूसी रक्षा उद्योग के लिए एक प्रमुख बाजार है. हाल ही तक यह इसका सबसे बड़ा बाज़ार था. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट (सिपरी) के मुताबिक पिछले दो दशकों के दौरान मॉस्को ने भारत की 65 फीसदी हथियार खरीद की सप्लाई की, जिसकी कुल कीमत 60 अरब डॉलर से अधिक थी.

व्यापार बढ़ने की कितनी संभावना

रूसी सेना द्वारा यूक्रेन पर हमला करने के बाद मॉस्को ने पश्चिम के प्रतिकार के रूप में भारत और चीन के साथ अपने संबंधों को गहरा करने की कोशिश की. क्रेमलिन ने युद्ध लड़ने के लिए देश के वित्त को बढ़ाने के लिए नई दिल्ली को तेल, कोयला और फर्टिलाइजर की सप्लाई पर भारी डिस्काउंट की पेशकश की. नतीजतन पश्चिमी प्रतिबंधों के मद्देनजर नए बाजार की तलाश में भारत रूसी कच्चे तेल के लिए एक प्रमुख निर्यात बाजार के रूप में उभरा.

उदाहरण के लिए वित्तीय विश्लेषक कंपनी एसएंडपी ग्लोबल के मुताबिक अप्रैल में भारत को रूसी कच्चे तेल की सप्लाई 21 लाख बैरल प्रतिदिन के नए रिकॉर्ड पर पहुंच गई.

2023-2024 में भारत और रूस के द्विपक्षीय व्यापार में इजाफा देखने को मिला है. दोनों देशों के बीच करीब 65 अरब डॉलर का व्यापार हुआ. इस व्यापार की अहम वजह ऊर्जा है. भारत के वाणिज्य विभाग के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 65.7 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था. हालांकि, व्यापार में रूस का पलड़ा भारी है, क्योंकि भारत ने तेल, उर्वरक, कीमती पत्थरों और धातुओं समेत 61.4 अरब डॉलर का सामान आयात किया है.

भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इसी साल मई में एक उद्योग सम्मेलन में कहा, "हम लंबे समय से रूस को राजनीतिक या सुरक्षा के नजरिए से देखते आए हैं. जैसे-जैसे वह देश पूर्व की ओर मुड़ रहा है, नए आर्थिक अवसर सामने आ रहे हैं... हमारे व्यापार में वृद्धि और सहयोग के नए क्षेत्रों को अस्थायी घटना नहीं माना जाना चाहिए."

भारत की चिंताएं क्या हैं?

जबकि पश्चिम ने रूस के साथ सस्ते तेल सौदे को लेकर भारत की आलोचना को सीमित रखा है, हथियारों के लिए मॉस्को पर नई दिल्ली की ऐतिहासिक निर्भरता अमेरिका और यूरोप के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है.

फ्रेंच इंस्टिट्यूट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस (आईएफआरआई) में भारतीय विदेश नीति पर शोधकर्ता अलेक्सेई जखारोव ने पिछले महीने एक शोध रिपोर्ट में लिखा था, "नई दिल्ली ने रूस-यूक्रेन युद्ध से निपटने के लिए एक बारीक दृष्टिकोण का प्रदर्शन किया है और मॉस्को और पश्चिम के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे हैं."

शोध पत्र में जखारोव ने "संरचनात्मक चुनौतियों" के बारे में लिखा, जिनके बारे में उन्होंने कहा कि "ये चुनौतियां अभी भी दोनों पक्षों को आर्थिक संबंधों को पुनर्जीवित करने से रोकती दिखती हैं." साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि रूस और भारत के बीच रक्षा सहयोग वर्तमान में "अनिश्चितता की स्थिति में है." उनके मुताबिक यूक्रेन युद्ध और पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण रूस का हथियार क्षेत्र आंशिक रूप से प्रभावित हुआ है.

रूस के हथियार उद्योग के साथ पहले के सौदों में भारत को कई नकारात्मक अनुभव हुए हैं. 2004 में रूस द्वारा अपग्रेड और मोडिफिकेशन किए गए सोवियत युग के विमानवाहक पोत को खरीदने के सौदे की लंबी देरी और लागत दोगुनी होने के कारण आलोचना की गई थी.

2013 में रूस की बनी एक पनडुब्बी में विस्फोट होने और उसके डूबने की घटना में चालक दल के 18 सदस्यों की मौत हो गई थी, जिसके बाद भारत के नेताओं पर मॉस्को के साथ रक्षा सहयोग को लेकर और अधिक दबाव बढ़ गया था.

भारतीय मीडिया ने अप्रैल में बताया कि भारतीय सेना वर्तमान में पांच एस-400 वायु रक्षा प्रणालियों और रूसी निर्मित फ्रिगेट्स में से दो का इंतजार कर रही है, जिन्हें रूस ने 2018 के सौदों के तहत सप्लाई करने पर सहमति जताई थी.

सिपरी के आंकड़ों से पता चलता है कि 2017 और 2022 के बीच भारत मॉस्को से हथियारों के ट्रांसफर का प्रमुख गंतव्य बना रहा, लेकिन इसी अवधि के दौरान दक्षिण एशियाई देश को रक्षा निर्यात में रूस की हिस्सेदारी 65 प्रतिशत से घटकर 36 प्रतिशत हो गई.

फ्रांस और जर्मन हथियार सप्लायरों को नई दिल्ली की रणनीति में बदलाव से फायदा मिला है, जबकि भारतीय नीति-निर्माता क्रेमलिन के साथ नए समझौतों पर हस्ताक्षर करके मॉस्को पर पश्चिमी प्रतिबंधों को तोड़ने में संकोच कर रहे हैं.

भारत ने कभी भी यूक्रेन का दृढ़ समर्थन नहीं किया है. विशेष रूप से पिछले महीने स्विट्जरलैंड में एक शांति सम्मेलन में एक संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने से भारत ने इनकार कर दिया था जिसमें किसी भी शांति समझौते में यूक्रेन की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने की बात कही गई थी. नरेंद्र मोदी कई बार अपील कर चुके हैं कि युद्ध समाप्त होना चाहिए और दोनों पक्षों को बातचीत से अपने विवाद सुलझाने चाहिए.

जखारोव ने अपने हालिया शोधपत्र में कहा, "सतह पर देखने पर ऐसा लग सकता है कि (यूक्रेन युद्ध में) भारत की तटस्थता ने मॉस्को के साथ द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने में मदद की है. हालांकि, करीब से देखने पर पता चलता है कि भारत रूस के साथ अपने संबंधों में ज्यादा सतर्क हो गया है... इसलिए दोनों पक्षों के लिए नए सौदे करने की तुलना में संवाद बनाए रखना और दांव लगाना ज्यादा महत्वपूर्ण होगा."

भले ही रूसी हथियार खरीदने के लिए नए समझौते सीमित हो सकते हैं, लेकिन मोदी की "मेक इन इंडिया" पहल, जिसका उद्देश्य देश को मैन्युफैक्चरिंग केंद्र के रूप में बढ़ावा देना है, उसके तहत रूस, भारतीय घरेलू हथियार उत्पादन के लिए अधिक कच्चा माल और पुर्जे उपलब्ध करा सकता है. हाल ही में रूसी कंपनी रोस्टोक ने भारत में अपने टैंकों के लिए गोले बनाने का एलान किया.

इसके अलावा रूस अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (आईएनएसटीसी) का विस्तार करने का भी इच्छुक है, यह एक सड़क, समुद्र और रेल परियोजना है जो ईरान के जरिए रूस को भारत से जोड़ती है. रूस ने पिछले महीने आईएनएसटीसी के माध्यम से कोयले की पहली खेप भेजी थी.

यह परियोजना दो दशकों से अधिक समय से चल रही है और पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण रूस को जिन बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, उसके कारण आईएनएसटीसी अब क्रेमलिन के लिए एक प्रमुख व्यापार प्राथमिकता है.

एक और परियोजना के पूरा होने की जरूरत है, जो नई अहमियत रखती है. वह है चेन्नई-व्लादिवोस्तोक समुद्री मार्ग. रूस के पूर्वी क्षेत्र से 10,300 किलोमीटर तक फैला समुद्री मार्ग भारत में रूसी ऊर्जा और अन्य कच्चे माल के सुरक्षित प्रवाह में मदद कर सकता है. प्रस्तावित परियोजना से स्वेज नहर के मौजूदा मार्ग की तुलना में शिपिंग समय 40 दिनों से घटकर 24 दिन रह जाने की उम्मीद है.

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