देश की खबरें | पर्यावरणविदों ने ईपीए उल्लंघन को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का विरोध किया

नयी दिल्ली, छह जुलाई विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के उल्लंघन को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा है कि हर चीज को जलवायु परिवर्तन के चश्मे से देखा जाना चाहिए।

इस सप्ताह की शुरुआत में जारी एक परामर्श नोट में, मंत्रालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम में संशोधन करने का प्रस्ताव दिया ताकि "साधारण उल्लंघन पर कारावास के डर को खत्म" किया जा सके।

वर्ष 1981 के वायु अधिनियम और 1974 के जल अधिनियम के उल्लंघन को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए संशोधन प्रस्तावित किए गए हैं।

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम (ईपीए) पर्यावरण सुरक्षा की दीर्घकालिक आवश्यकताओं के अध्ययन, योजना और कार्यान्वयन के लिए ढांचा स्थापित करता है और पर्यावरण को खतरे में डालने वाली स्थितियों के लिए त्वरित और पर्याप्त प्रतिक्रिया की एक प्रणाली तैयार करता है।

ईपीए के प्रावधानों या अधिनियम के तहत जारी नियमों या निर्देशों का उल्लंघन करने पर पांच साल तक की कैद या एक लाख रुपये तक का जुर्माना या दोनों सजा हो सकती हैं। इस तरह के उल्लंघन को जारी रखने पर प्रतिदिन 5,000 रुपये तक का अतिरिक्त जुर्माना लगाया जाता है।

दोष सिद्ध होने की तिथि के बाद एक वर्ष से अधिक समय तक उल्लंघन जारी रखने पर सात साल कैद की सजा का प्रावधान है। ईपीए के प्रावधानों संबंधी विफलता या उल्लंघन या गैर-अनुपालन पर पांच करोड़ रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा। न्यूनतम जुर्माना पांच लाख रुपये होगा।

हालांकि, गंभीर उल्लंघन के मामले में, जो गंभीर चोट या जीवन की हानि का कारण बने, भारतीय दंड संहिता के प्रावधान लागू होंगे।

प्रख्यात पर्यावरणविद् मनोज मिश्रा ने कहा कि 2020-30 का दशक मानव जाति के भाग्य का फैसला करेगा और पर्यावरण को प्रभावित करने वाले सभी नीतिगत फैसलों को जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

उन्होंने कहा, "हम एक अस्तित्वगत चुनौती का सामना कर रहे हैं और हम मानते हैं कि ईपीए, वायु अधिनियम तथा जल अधिनियम के प्रावधानों को कमजोर करने का कदम जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और शमन के अनुरूप नहीं है।"

भारतीय वन सेवा के पूर्व अधिकारी ने कहा कि यह कदम गैर-प्रतिगमन के सिद्धांत और "प्रदूषक भुगतान" सिद्धांत का उल्लंघन है।

गैर-प्रतिगमन का सिद्धांत मौजूदा कानूनों को मजबूत करने का प्रावधान करता है, जबकि ‘'प्रदूषक भुगतान’’ का सिद्धांत पर्यावरण को हुए नुकसान के लिए प्रदूषक को जिम्मेदार बनाता है।

मिश्रा ने कहा, "उल्लंघन के लिए जेल की अवधि एक प्रमुख निवारक के रूप में कार्य करती है। संशोधन जेल की अवधि को जुर्माने के साथ बदल देगा। जब हम हजारों करोड़ की परियोजनाओं की बात करते हैं तो पांच करोड़ रुपये का जुर्माना कुछ भी नहीं है। लोग कानूनों का उल्लंघन करेंगे और बाद में जुर्माना देने के बाद बच जाएंगे।”

उन्होंने कहा कि किसी भी पर्यावरणीय उल्लंघन को "साधारण" नहीं माना जा सकता क्योंकि यह मानव शरीर को तत्काल प्रभावित करता है।

पर्यावरण कार्यकर्ता भावरीन कंधारी ने पूछा कि क्या जुर्माना लगाने से कभी कोई पर्यावरण उल्लंघन रुका है।

उन्होंने कहा, "किसी पेड़ को मारने की सजा क्या होनी चाहिए?" कंधारी ने हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा की गई उस टिप्पणी का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि "माँ प्रकृति एक जीवित इकाई है।"

पर्यावरण कार्यकर्ता ने कहा, ‘‘क्या आप कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति को मारना एक साधारण उल्लंघन है और आप जुर्माना भरकर बच जाएंगे।?"

कंधारी ने कहा, "मैं जानना चाहती हूं कि प्रदूषण के मामलों को 'सामूहिक हत्या का प्रयास' क्यों नहीं माना जाना चाहिए? मेरे बच्चे कम प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वाले दूसरों की तुलना में 10 साल कम जिएंगे ... मुझे इसे क्यों स्वीकार करना चाहिए?"

हालांकि, पर्यावरणविद् चंद्र भूषण ने कहा कि पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन को अपराध की श्रेणी से बाहर करना एक व्यावहारिक कदम है।

उन्होंने कहा, "हमारे वर्तमान पर्यावरण कानूनों में गैर-अनुपालन के खिलाफ विश्वसनीय निवारक नहीं है। शायद ही किसी को सलाखों के पीछे रखा जाता है और अभियोजन की सफलता दर नगण्य है।’’

भूषण ने कहा, "सबूतों का बोझ ज्यादा है। भोपाल गैस त्रासदी में भी किसी को जेल नहीं हुई।"

‘‘इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरन्मेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी’’ के अध्यक्ष और सीईओ ने कहा कि भारत को वैश्विक तरीकों को देखना चाहिए कि पर्यावरण कानून काफी हद तक दीवानी कानून हैं और भारी-भरकम जुर्माने पर आधारित हैं। उन्होंने कहा कि जुर्माना प्रदूषक (प्रदूषण फैलाने वाले) के लाभ का कुछ प्रतिशत होना चाहिए।

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