क्या जैव विविधता को खत्म होने से बचाया जा सकता है?

इंसानी गतिविधियों की वजह से अनगिनत पौधों और जानवरों की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

इंसानी गतिविधियों की वजह से अनगिनत पौधों और जानवरों की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं. क्या जैव विविधता को खत्म होने से बचाया जा सकता है? इसके लिए हमें क्या करना होगा.शोधकर्ताओं ने पांच साल पहले आखिरी बार पश्चिमी पनामा के नम और निचले जंगलों में एक छोटे, गहरे लाल रंग के जहरीले मेढक को देखा था. 2022 से यह मेढक विलुप्त प्रजातियों की सूची में शामिल हो गया है. इसमें पहले से ही कूबड़ वाला भूरा व्योमिंग टॉड, काला हवाई कौवा और चमकीला नीला स्पिक्स मकाऊ शामिल हैं.

जीव विज्ञानियों के मुताबिक, करीब डेढ़ लाख पौधों और जीवों में से 30 फीसदी विलुप्त होने की कगार पर हैं. इसकी वजह यह है कि जंगल खत्म हो रहे हैं. कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जा रहा है. साथ ही, व्यापार या खेल के लिए उनका अवैध शिकार किया जा रहा है.

पिछली बार जब 6.6 करोड़ वर्ष पहले चट्टान का एक बड़ा टुकड़ा धरती से टकराया था, तब इतनी बड़ी संख्या में वनस्पतियां और जीव-जंतु तेजी से नष्ट हुए थे. इस प्रलय ने डायनासोर के युग को समाप्त कर दिया था और धरती पर मौजूद करीब 75 फीसदी प्रजातियां खत्म हो गई थीं.म

इस बार इंसानी गतिविधियां बन रही हैं वजह

पृथ्वी के इतिहास में इस कालखंड को ‘मानव युग' के रूप में जाना जाता है. इसमें मनुष्य ही विनाशकारी क्षुद्र ग्रह की भूमिका निभा रहे हैं. प्राकृतिक रूप से हर साल लगभग 10 से 100 प्रजातियां विलुप्त हो जाती हैं, लेकिन इंसानी गतिविधियों के कारण यह संख्या बढ़कर हर साल लगभग 27,000 तक पहुंच गई है.

सिर्फ अमेजन के वनों की कटाई से ही ब्राजील में 10,000 से अधिक प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा है. ब्राजील विश्व की जैव विविधता का एक प्रमुख केंद्र है, जहां दुनिया के 15 से 20 फीसदी पेड़-पौधे और जीव-जंतु पाए जाते हैं.

उभयचर, कीड़े, सरीसृप और मछलियां तेजी से विलुप्त हो रही हैं. जैसे-जैसे ये प्रजातियां विलुप्त होती हैं, पारिस्थितिकी तंत्र खराब होता है और आखिरकार नष्ट हो जाता है. इससे इंसानों पर भी गंभीर प्रभाव पड़ता है. उदाहरण के लिए, परागण करने वाले जीव कम होने पर फल, फूल और सब्जियों का उत्पादन कम हो जाता है. वहीं, जंगली जानवरों और मछलियों की आबादी कम होने का मतलब है कि प्रोटीन के स्रोत का नुकसान हो रहा है.

संरक्षण उपायों, पर्यावरण कानूनों, प्रजनन केंद्रों के संरक्षण और प्राकृतिक वन्यजीव अभयारण्य ने कुछ प्रजातियों की आबादी को बचाने में मदद की है. हालांकि, विलुप्त होने की रफ्तार इतनी तेज है कि इन प्रयासों से लुप्त हो रही सभी प्रजातियों को बचाने की कोशिशें सफल नहीं हो पा रही हैं. हर रोज नई प्रजातियां खतरे में आ रही हैं.

प्रजनन में समस्या होने से मर जाते हैं जानवर

अगर तरीका सही न हो, तो संरक्षण के प्रयास भी विफल हो जाते हैं. उदाहरण के लिए, मेडागास्कर के सहफारी स्पोर्टिव लेमुर को ही लें. गैर-सरकारी संगठन ‘मेडागास्कर बायोडायवर्सिटी पार्टनरशिप' के प्रमुख एडवर्ड लुईस के अनुसार, 2019 के सर्वेक्षण में इन बड़ी आंखों वाले प्राइमेट्स के केवल 87 जीव पाए गए. लुईस ने इन बंदरों को बचाने के लिए अपने जीवन के लगभग 25 साल समर्पित कर दिए.

लुईस ने बताया कि इन लेमुर को पकड़कर उनकी प्रजनन कराने की कोशिशें नाकामयाब रहीं. वह कहते हैं, "जब आप उन्हें जंगल से बाहर निकालते हैं, तो उनके शरीर के बैक्टीरिया का संतुलन बिगड़ जाता है और दुर्भाग्य से आठ से दस दिन बाद उनकी मृत्यु हो जाती है."

लेमुर के लिए जंगलों का खत्म होना सबसे बड़ा खतरा है. स्थानीय लोगों को खाना पकाने के लिए जलावन की जरूरत होती है, इसलिए वे जंगल काट देते हैं. यही कारण है कि वन्यजीव संरक्षणकर्मी अब स्थानीय लोगों को लेमुर के रहने की जगह बचाने के लिए राजी कर रहे हैं और खाना पकाने के लिए किसी वैकल्पिक ईंधन की तलाश कर रहे हैं.

भारत में बेहतर हुई बाघों की स्थिति

जर्मन संरक्षण समूह बुंड से जुड़े मागनुस जे.के. वेसेल ने कहा कि संरक्षण प्रयासों की सफलता के लिए स्थानीय लोगों का सहयोग बहुत जरूरी है. वह कहते हैं, "जहां के लोग अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए जानवरों को महत्व देते हैं, उन्हें आर्थिक लाभ भी होता है और वहां स्थिति भी सही रहती है. भारत के राष्ट्रीय उद्यानों में बाघों के संरक्षण के लिए किए गए कार्यों से यह बात साफ तौर पर नजर आती है."

भारत में बाघों की संख्या में 17 सालों के दौरान अच्छी वृद्धि हुई है. 17 साल पहले 1,400 बाघ थे, जो आज बढ़कर लगभग 3,600 हो गए हैं. संरक्षित क्षेत्रों, शिकार के खिलाफ लड़ाई और पिछले दशक में 2.1 अरब डॉलर के निवेश की बदौलत यह संभव हुआ है.

अब स्थानीय समुदाय बाघों के संरक्षण को महत्व देते हैं और उन्हें पर्यटन से लाभ होता है. हालांकि, बाघ की मौजूदा आबादी अभी भी साल 1900 के आसपास भारत में रहने वाले 1,00,000 बाघों से काफी कम है, लेकिन संरक्षणवादियों का मानना है कि यह वृद्धि भी सफलता है.

बाघों की संख्या में भले ही बढ़ोतरी हुई है, लेकिन ये निश्चित नहीं है कि यह आगे भी बढ़ती रहेगी. इसके अलावा, अच्छे इरादों से किए गए प्रयासों के भी कभी-कभी विपरीत प्रभाव हो सकते हैं. वेसेल कहते हैं, "हमें ईमानदार रहना होगा और अनिश्चितताओं का सामना करना होगा."

1990 के दशक में डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने चीन की वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति में इस्तेमाल होने वाले सींगों के लिए गैंडों के शिकार को रोकने का अभियान चलाया. उन्होंने सुझाव दिया कि इसके बजाय साइगा मृग के सींगों का इस्तेमाल किया जाए. इससे मृगों की आबादी 97 फीसदी कम हो गई.

संरक्षण के प्रतीक: नेकेड मोल रैट और गैंडे

ज्यादातर लोगों को सीधे तौर पर प्रजातियों के विलुप्त होने के नतीजे भुगतने नहीं पड़ते हैं, इसलिए लोगों तक संदेश पहुंचाना जरूरी है. वेसेल के अनुसार, बड़े और आकर्षक जानवर जैसे कि गैंडे और बाघ के साथ ही छोटे, प्यारे और फर वाले जानवर भी संरक्षण की ओर लोगों का ध्यान खींचने में मदद कर सकते हैं. उन्होंने कहा, "नेकेड मोल रैट को भी लोग काफी ज्यादा पसंद करते हैं, भले ही यह कोई सुंदर जीव नहीं है."

हालांकि, नेकेड मोल रैट एक अपवाद है. इस तरह की ज्यादातर प्रजातियां जमीन के अंदर रहती हैं. वेसेल बताते हैं कि मनुष्यों को आमतौर पर रेंगने-फिरने वाले जीव पसंद नहीं होते हैं. इसलिए इन कम आकर्षक प्रजातियों की रक्षा का एकमात्र तरीका, अधिक आकर्षक प्रजातियों के लिए अभयारण्य बनाना है.

इस तरह के संरक्षण उपायों के लिए पैसे की जरूरत होती है और यह बड़ी समस्या है. ज्यादातर देशों ने पर्यावरण के संरक्षण के लिए पर्याप्त निवेश नहीं किया है. जो देश ऐसा करते भी हैं, वो उनके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का एक से डेढ़ फीसदी तक ही होता है. इस मामले में यूरोपीय देश ज्यादा प्रगतिशील हैं. इसके बाद एशियाई और दक्षिण अमेरिकी देश हैं. सेनेगल अपने जीडीपी के 0.5 फीसदी हिस्से का निवेश करके अफ्रीका में सबसे आगे है.

हालांकि, जिन देशों में जैव-विविधता के संरक्षण को लेकर ज्यादा निवेश किया जा रहा है, वहां भी प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं. साल 1990 के बाद से मलेशिया, युगांडा और तंजानिया में लुप्तप्राय प्रजातियों का अनुपात तेजी से बढ़ा है, जो तुलनात्मक रूप से संरक्षण पर कम खर्च करते हैं. ज्यादा खर्च करने वाले फ्रांस, चीन और न्यूजीलैंड में भी यही स्थिति है.

प्रजातियों के जीवित रहने की संभावनाएं

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) यह आकलन करने का प्रयास करता है कि संरक्षण के प्रयास कितने कारगर साबित होते हैं. इसके लिए वे खास तरह के पैमाने का इस्तेमाल करते हैं. उदाहरण के लिए, यह पैमाना किसी प्रजाति के संरक्षण प्रयासों के साथ या उसके बिना, उसकी आबादी बढ़ने की क्षमता और प्रत्येक प्रजाति के लिए अधिकतम आबादी के आकार का अनुमान लगाता है.

दक्षिण अफ्रीका की नीली क्रेन एक ऐसी प्रजाति है, जिसे संरक्षण प्रयासों से बहुत फायदा हो सकता है. अगले दशक तक जंगल में इनकी आबादी लगभग पूरी तरह से वापस आ सकती है. हालांकि, एडवर्ड लुईस जिन लेमुरों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं उनका भविष्य इतना उज्ज्वल नहीं है. अगर जंगल को फिर से उगाने की कोशिश की जाए, तो अगले 10 साल में उनकी आबादी वापस लाई जा सकती है. फिलहाल यह प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है.

लुईस अब मेडागास्कर में स्थानीय कंपनी के साथ मिलकर काम कर रहे हैं, ताकि तेजी से बढ़ने वाले यूकेलिप्टस से ईंधन के साधन जुटाए जा सकें. इससे लेमुर को बचाने के लिए जंगलों को संरक्षित किया जा सकेगा. हालांकि, खाना पकाने के दौरान यूकेलिप्टस की सुगंध चावल में शामिल हो जाती है. इसलिए यह स्थानीय लोगों के बीच उतना लोकप्रिय नहीं हो पा रहा है. इसके बावजूद, लेमुर को बचाने के लिए लुईस हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं.

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