शिक्षा बिहार के लिए हमेशा से बड़ा मुद्दा रहा है. राज्य की प्राथमिक शिक्षा प्रणाली में सुधार हुआ है. लेकिन अब भी आठवीं पास करते ही बच्चे दिल्ली, कोटा और नेपाल जा रहे हैं."मैं अपने बच्चों को बिहार से बाहर पढ़ने भेजना चाहता हूं. सरकारी स्कूलों की हालत अच्छी नहीं है. वहां पढ़ाई करने लायक माहौल नहीं है. दसवीं के बाद पढ़ाई का स्तर और सुविधाएं और भी खराब हो जाती हैं. टीचर बच्चों पर ठीक से ध्यान नहीं देते. गरीब हो या अमीर, सभी माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए बाहर भेजना चाहते हैं, जैसे नेपाल, कोटा, दिल्ली या मुंबई. मेरा भाई नेपाल में मेडिकल की तैयारी कर रहा है. बहन कोटा में इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रही है."
यह कहना है बिहार के जहानाबाद जिले के निवासी सुदीप कुमार का. सुदीप जहानाबाद में जमीन कारोबारी हैं. उनके बच्चे छठवीं और सातवीं कक्षा में पढ़ाई कर रहे हैं. दोनों ही निजी स्कूल में पढ़ते हैं. लेकिन सुदीप चाहते हैं कि दसवीं के बाद उनके बच्चे बिहार से बाहर चले जाएं.
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बिहार में इस बार के विधानसभा चुनाव में भी 'शिक्षा'को चुनावी घोषणापत्रों में प्रमुख मुद्दा बताया गया है. नीतीश सरकार का दावा है कि राज्य की शिक्षा प्रणाली में काफी सुधार हुआ है. साल 2005 में सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शिक्षा क्षेत्र में सुधार के लिए कई योजनाओं की शुरुआत की. तब राज्य का शिक्षा बजट लगभग 4,366 करोड़ रूपए था. अब यह बढ़कर 77,690 करोड़ रूपए हो गया है. इस दौरान शिक्षा से जुड़ी कई योजनाएं भी शुरू हुईं. इनसे स्कूलों में दाखिले की संख्या बढ़ी. लेकिन पिछले 20 वर्षों में शिक्षा का बजट करीब 18 गुना बढ़ने के बाद भी बिहार में शिक्षा की गुणवत्ता और इंफ्रास्ट्रक्चर में कोई खास सुधार नहीं हुआ.
एक ही क्लासरूम में पढ़ते हैं सभी कक्षाओं के बच्चे
बिहार के शहरों की तुलना में, गांवों में स्कूलों की हालत ज्यादा खराब है. जहानाबाद के मिराबीघा गांव में स्थित प्राथमिक विद्यालय दो कमरों में चलता है. यहां कक्षा एक से लेकर पांचवीं तक लगभग 80 छात्र पढ़ते हैं. एक कमरे में पहली और दूसरी कक्षा के बच्चे साथ पढ़ते हैं. दूसरे कमरे में तीसरी, चौथी और पांचवीं के बच्चे बैठते हैं. यहां शिक्षकों की भी कमी है. केवल तीन शिक्षक सभी कक्षाओं को पढ़ाते हैं.
स्कूल के हेडमास्टर विपिन कुमार बताते हैं कि सभी कक्षा के बच्चों को साथ पढ़ाने में दिक्कत आती है. वह डीडब्लू से कहते हैं, "बच्चे पंक्तियों में बैठते हैं. पहली कक्षा के बच्चे पहली पंक्ति में, दूसरी कक्षा के बच्चे दूसरी पंक्ति में और तीसरी कक्षा के बच्चे तीसरी पंक्ति में. क्लासरूम में केवल एक ब्लैकबोर्ड है. ब्लैकबोर्ड पर रेखा खींचकर उसे तीन हिस्सों में बांटा हुआ है. एक समय पर, एक ही शिक्षक तीनों क्लास के बच्चों को बारी-बारी से पढ़ाते हैं. शिक्षकों के बैठने के लिए अलग से कोई कमरा नहीं है. उनके कमरे में मिड-डे मील का खाना बनता है."
बिहार में लगभग 2,600 ऐसे स्कूल हैं जिनमें सिर्फ एक शिक्षक है. इसका बच्चों की पढ़ाई पर काफी बुरा असर पड़ता है. पिछले साल आई असर (एएसईआर) रिपोर्ट- 2024 के अनुसार कक्षा एक के लगभग 31.9 प्रतिशत बच्चे एक से नौ तक की संख्या नहीं पहचान पाते. कक्षा तीसरी के 28.3 प्रतिशत बच्चे कक्षा दो का पाठ नहीं पढ़ पाते. वहीं कक्षा आठ का करीब 40 प्रतिशत बच्चे सामान्य गणित के सवाल नहीं हल कर पाते.
हेडमास्टर विपिन कुमार इस बात को स्वीकारते हैं. वह कहते हैं, "हम इसे गंभीरता से ले रहे हैं. घर का माहौल पढ़ाई के अनुकूल नहीं होता. ज्यादातर बच्चों के माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं हैं. इसलिए वे घर पर बच्चों की पढ़ाई में मदद नहीं कर पाते. बच्चे होमवर्क नहीं करते और सीखने में दिक्कत होती है. हम मानते हैं कि सरकार को पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराने चाहिए. अगर पांच कक्षाएं हैं, तो कम से कम पांच शिक्षक भी होने चाहिए ताकि हर बच्चे पर ठीक से ध्यान दिया जा सके."
बिहार से बाहर पढ़ाना अच्छा भी और सस्ता भी
बिहार के बहुत से अभिभावकों की तरह हेडमास्टर विपिन कुमार खुद भी अपने बच्चे को बिहार से बाहर पढ़ने भेजना चाहते हैं. विपिन का मानना है कि बिहार से बाहर पढ़ाई का माहौल बेहतर है. हर साल मेडिकल, इंजीनियरिंग और सरकारी नौकरी के लिए आवेदकों की संख्या बढ़ रही है. लेकिन शिक्षा का स्तर नहीं बढ़ रहा. प्रतिस्पर्धा कठिन होती जा रही है. इसलिए बच्चों को बेहतर भविष्य के लिए बाहर पढ़ने भेजना ही एकमात्र विकल्प रह गया है.
उच्च शिक्षा के जो प्राइवेट संस्थान बिहार में हैं, उनमें फीस बहुत ऊंची है. कई अभिभावकों ने डीडब्ल्यू को बताया कि दिल्ली और बेंगलुरु में जहां कॉलेज की फीस एक से डेढ़ लाख रूपए होती है, वहीं बिहार में ये फीस दो लाख रूपए से शुरू होती है. ऐसे में माता-पिता को, बच्चों को पढ़ाई के लिए बाहर भेजना ही ठीक विकल्प लगता है.
हर पार्टी के घोषणापत्र में शिक्षा अहम मुद्दा
बिहार में इस बार चुनावी मुकाबला दो प्रमुख गठबंधनों के बीच है. एक ओर एनडीए है. बीजेपी, जेडीयू, एलजेपी (राम विलास), हम (सेक्युलर) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा इसकी मुख्य घटक पार्टियां हैं. वहीं दूसरी ओर महागठबंधन है. इसके अंतर्गत आरजेडी, कांग्रेस और सीपीआईएम जैसे राजनीतिक दल एकजुट होकर चुनावी मैदान में हैं.
एनडीए ने अपने घोषणापत्र में गरीब परिवारों के छात्रों के लिए किंडरगार्टन (केजी) से पोस्ट‑ग्रेजुएशन (पीजी) तक मुफ्त शिक्षा का वादा किया है. यह वादा भी किया गया है कि अगर एनडीए सत्ता में लौटी तो स्कूल इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए पांच हजार करोड़ रूपए का बजट सुनिश्चित किया जाएगा. साथ ही एजुकेशन सिटी बनाई जाएगी.
वहीं महागठबंधन के 'तेजस्वी प्रण' में महिलाओं के लिए कॉलेज खोलने की बात कही गई है. घोषणापत्र में 136 खंडों में डिग्री कॉलेज खोलने का वादा किया गया है. प्रतियोगी परीक्षाओं की फीस को खत्म करना और इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार किए जाने की बातें कही गई हैं. साथ ही घोषणापत्र में पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग के छात्रों के लिए विशेष स्कॉलरशिप और सहायता का जिक्र भी किया गया है.
बिहार में ड्रापआउट दर अब भी ज्यादा
जहानाबाद के मखदमपुर सरकारी कन्या मध्य विद्यालय में हालात थोड़े बेहतर दिखते हैं. यहां कक्षा पहली से आठवीं तक की छात्राएं पढ़ाई करती हैं. यहां शौचालय है. मिड-डे मील की व्यवस्था है. हर कक्षा के लिए अलग कमरा और पर्याप्त शिक्षक हैं.
हालांकि स्कूल के अंदर एक अलग समस्या से सामना होता है. इसकी पहली मंजिल के एक कमरे में एक अन्य स्कूल सरेन मठ प्राथमिक विद्यालय के छात्र पढ़ाई कर रहे हैं. इस एक कमरे में पहली से पांचवीं तक के सभी छात्र अपनी कक्षा के अनुसार पंक्तियों में बैठते हैं. हिंदी शिक्षिका मीना कुमारी हर बच्चे की सीट पर जाकर पढ़ाती हैं क्योंकि ब्लैकबोर्ड नहीं है. यह स्कूल जर्जर हालत में था. इसलिए साल 2023 में इसे मखदमपुर सरकारी स्कूल में शिफ्ट करना पड़ा.
मीना कुमारी डीडब्लू को बताती हैं, "हमारे स्कूल की बिल्डिंग को ध्वस्त कर दिया गया था. छत से पानी टपकता था. एक दिन छत गिर गई. कई बार हमने कलेक्टर को पत्र लिखे. काफी मुश्किल के बाद सुनवाई हुई. पिछले दो साल से नई बिल्डिंग बन रही है. इसलिए उस स्कूल के बच्चों को यहां शिफ्ट किया गया है. लेकिन दूरी की वजह से कई बच्चों ने स्कूल आना छोड़ दिया. उस स्कूल में 114 बच्चे थे. नई जगह पर अब केवल 64 बच्चे ही पढ़ाई कर रहे हैं. पहली कक्षा का तो केवल एक बच्चा ही आ रहा है."
स्थिति पहले से बेहतर लेकिन अभी काफी सुधार की जरुरत
नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने बिहार की शिक्षा प्रणाली को सुधारने के लिए कुछ अहम कदम जरूर उठाए. जैसे मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना के तहत लड़कियों को शिक्षा जारी रखने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन दिया जाता है. लड़कियों के लिए साइकिल योजना जैसी पहल की गई है ताकि उनकी पढ़ाई में भागीदारी बढ़ सके. सरकार बच्चों को मुफ्त पाठ्यपुस्तक, यूनिफार्म और मिड-डे मील की सुविधा उपलब्ध कराती है.
इसके बावजूद बिहार में ड्रापआउट की दर राष्ट्रीय औसत से लगभग चार गुना अधिक है. हालांकि प्रारंभिक शिक्षा में बच्चों को बनाए रखने के लिए बिहार सरकार की पहल कुछ हद तक सफल रही है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि बिहार में प्राथमिक शिक्षा स्तर पर ड्रॉपआउट दर लगभग 3.8 प्रतिशत है. लेकिन यह दर माध्यमिक स्तर में 19.5 प्रतिशत और उच्च माध्यमिक स्तर में लगभग 10.3 प्रतिशत है. एक अन्य डाटा बताता है कि बिहार के 72,663 सरकारी स्कूलों में से 15,000 से अधिक स्कूलों में बेंच और डेस्क नहीं हैं. वहां बच्चे जमीन पर बैठकर पढ़ते हैं.
इस ड्रापआउट के दो मुख्य कारण हैं. मखदमपुर सरकारी कन्या मध्य विद्यालय में हिंदी शिक्षक राम लाल प्रसाद डीडब्लू से बात करते हैं. उनके अनुसार पलायन ने बच्चों के स्कूल आने को प्रभावित किया है. वह कहते हैं, " माता-पिता आर्थिक कारणों के चलते राज्य से बाहर कमाने जाते हैं. वे चाहते हैं कि उनके बच्चे वहीं पढ़ें जहां वो रह रहे हैं. दूसरा, पलायन करने वाले परिवार अपने बच्चों को दादी या नानी के घर भी छोड़ देते हैं. इससे बच्चे की पढ़ाई छूट जाती है. कई बार बच्चों को खेतों में काम करने के लिए भी रोक लिया जाता है."
राम लाल प्रसाद आगे बताते हैं, "साल 2014 में स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. पहले बच्चे जमीन पर बैठकर पढ़ते थे. साल 2023 से बदलाव आया. अब स्कूल में टेबल और चेयर है. पानी और बिजली है. मिडिल स्कूल में डिजिटल स्मार्ट क्लास की भी व्यवस्था कराई जा रही है. बिहार सरकार हर साल सर्वे कराती है. जो बच्चे शिक्षा प्रणाली से बाहर हो गए हैं उनका नाम फिर से स्कूल में जोड़ने की कोशिश की जाती है. पिछले साल हमारे स्कूल की 13 लड़कियां ड्रापआउट हो गई थी. उनका फिर से स्कूल में दाखिला कराया गया."
प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन बिहार के अलग-अलग जिलों में शिक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने की दिशा में काम करती है. इसके जिला कोऑर्डिनेटर परशुराम शर्मा ने डीडब्लू को बताया कि कई स्कूलों में अब भी सभी कक्षा के बच्चे एक कमरे में पढ़ते हैं. ऐसा विशेष रूप से प्राथमिक विद्यालयों में अधिक देखने को मिलता है. इससे शिक्षकों को पढ़ाने और बच्चों पर ध्यान देने में कठिनाई होती है. ऐसी स्थिति इसलिए बनी है क्योंकि कई स्कूलों के पास जमीन नहीं है.
शिक्षा के लिए पलायन रोकना बड़ी चुनौती
इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर संतोष सिंह बताते हैं कि बिहार की राजनीति लंबे समय से जातीय राजनीति में जकड़ी हुई है. इस चुनाव में जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने सबसे पहले पलायन, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों पर बात शुरू की. इसके बाद बाकी दलों को भी इन विषयों को उठाना पड़ा.
डीडब्लू से बातचीत के दौरान संतोष सिंह ने कहा, "प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता में कुछ सुधार हुआ है. बीपीएससी परीक्षा के माध्यम से बेहतर शिक्षकों की नियुक्ति की गई. बिहार की असली समस्या माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शिक्षा में है. दसवीं के बाद बच्चे पढ़ने के लिए बिहार से बाहर अन्य राज्यों में चले जाते हैं. कभी पटना विश्वविद्यालय और टीएनबी कॉलेज भागलपुर को प्रतिष्ठित संस्थान माना जाता था लेकिन उन्होंने अपनी पहचान खो दी. सरकारी स्कूल अब भी पूरी तरह विकसित नहीं हुए हैं. ब्लॉक स्तर पर स्कूलों की स्थिति अच्छी नहीं है. नीतीश सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया, अच्छी इमारतें दीं और शिक्षक-छात्र अनुपात को बेहतर किया. मगर किसी भी पार्टी के पास कोई ठोस शिक्षा-नीति या ब्लूप्रिंट नहीं है जो इसे लेकर आगे का रास्ता दिखाए."
कई दशकों से बिहार के लोग नौकरियों के साथ ही उच्च शिक्षा के लिए भी बिहार से पलायन कर रहे हैं लेकिन अब भी राजनीतिक दल इस मुद्दे पर कोई दूरदर्शी नीति बना पाने में असमर्थ दिख रहे हैं.












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