दक्षिण कोरिया: वैज्ञानिकों ने बनाया मांस के प्रोटीन से भरपूर हाइब्रिड चावल
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल में वैज्ञानिकों ने लोगों के खान-पान से प्रोटीन की कमी पूरी करने के लिए एक खास गुलाबी चावल बनाया है. इस चावल में मांस का प्रोटीन होगा, लेकिन बिना किसी जानवर को मारे.पूर्वी एशिया के देश दक्षिण कोरिया में वैज्ञानिकों ने मांस के प्रोटीन से युक्त यह हाइब्रिड चावल तैयार किया है. इसके लिए मांस की कल्चर्ड कोशिकाओं को चावल के दानों में इंजेक्ट किया जाता है. सेल-कल्टिवेटेड मीट, जानवर की कोशिकाओं से विकसित किया जाता है और इसके लिए जीव को मारने की जरूरत नहीं पड़ती.

दक्षिण कोरियाई वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि उनका यह प्रयोग हमारे खाने के तरीके में बड़ा बदलाव ला सकता है. साथ ही, मवेशीपालन से मिलने वाले मांस की तुलना में कम कार्बन उत्सर्जन कर प्रकृति और पर्यावरण के लिए बेहतर विकल्प बन सकता है.

इस हाइब्रिड चावल में आठ फीसदी तक ज्यादा प्रोटीन

प्रयोग में शामिल वैज्ञानिकों की टीम के प्रमुख प्रोफेसर हांग जिन-की इस चावल को "मीटी राइस" का नाम देते हैं. इसमें सामान्य चावल के मुकाबले आठ फीसदी ज्यादा प्रोटीन और सात प्रतिशत ज्यादा वसा है. हांग को यकीन है कि यह चावल लोगों को पर्याप्त प्रोटीन मुहैया कराने का ईको फ्रेंडली विकल्प बन सकता है.

लैब में बना लिया 4,000 साल पहले खत्म हुए मैमथ के मांस का कोफ्ता

यह चावल देखने में सामान्य नजर आता है, बस इसका रंग गुलाबी है. बीफ मांसपेशियों और वसा युक्त कोशिकाओं से भरपूर होने के कारण इसमें एक खास तरह की खुशबू भी है. प्रोफेसर हांग ने समाचार एजेंसी एएफपी से बातचीत में कहा, "कल्चर्ड मीट का इस्तेमाल कर हम बिना जानवर को मारे एनिमल प्रोटीन हासिल कर सकते हैं." हांग ध्यान दिलाते हैं कि कई एशियाई देशों में लोगों के लिए अनाज ही प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत हैं. यही ध्यान में रखकर इस प्रयोग के लिए चावल को ही चुना गया.

प्रयोगशाला में बने मांस की इंडस्ट्री काफी बढ़ रही है

हालिया समय में कई कंपनियां मांस के विकल्प ला रही हैं. इनमें से कुछ पौधों से लिए गए उत्पादों से तैयार किए गए हैं और कई कल्चर्ड मीट उत्पाद हैं. कई जानकार मानते हैं कि ये विकल्प ना केवल औद्योगिक स्तर पर होने वाले मवेशीपालन से जुड़े नैतिक मुद्दों का विकल्प बन सकते हैं, बल्कि मवेशीपालन से होने वाले ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम कर प्रकृति और पर्यावरण के लिए भी बेहतर विकल्प साबित हो सकते हैं.

जलवायु और स्वास्थ्य के लिए अफ्रीका में मीट खाना छोड़ रहे लोग

ग्लोबल कंसल्टेंसी एटी कार्ने ने 2019 की अपनी एक रिपोर्ट में अनुमान जताया कि 2040 तक वैश्विक मांस खपत का 40 प्रतिशत ही पारंपरिक स्रोतों से आएगा. रिपोर्ट के मुताबिक, कल्चर्ड मीट जैसी तकनीक से दूध, अंडा, जेलेटिन और मछली जैसे उत्पाद भी बनाए जा सकते हैं.

हांग की टीम का भी दावा है कि उनके हाइब्रिड चावल को बनाने की प्रक्रिया में प्रोटीन उत्पादन का कार्बन फुटप्रिंट काफी हद तक कम हो जाता है. हांग के मुताबिक, इस तरीके से हर 100 ग्राम प्रोटीन के उत्पादन में 6.27 किलो कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है. यह पारंपरिक तरीके से मिलने वाले बीफ की तुलना में आठ गुना कम उत्सर्जन है.

प्रयोगशाला में मांस बनाने की प्रक्रिया कितनी सुरक्षित?

अभी इस प्रयोग की प्रक्रिया खासी लंबी है. पहले एक सामान्य चावल के दाने पर फिश जेलेटिन की परत चढ़ाई जाती है. फिर इसमें बीफ सेल्स डाले जाते हैं. इसके बाद करीब 11 दिनों तक इसे पेट्री डिश में विकसित किया जाता है.

हांग बताते हैं कि चावल की बनावट थोड़ी झिरझिरी होती है. ऐसे में बीफ सेल डाले जाने के बाद इसके भीतर एकसार तरीके से कोशिकाओं के विकसित होने में मदद मिलती है. हांग कहते हैं, "ऐसे लोग जिन्हें दिनभर में बस एक बार खाना मिल पाता है, उनके लिए थोड़ा ज्यादा प्रोटीन युक्त आहार भी काफी अहम साबित होगा."

दक्षिण कोरिया ने अभी तक कल्टिवेटेड मीट को इंसानी आहार के लिए मंजूरी नहीं दी है. हालांकि 2022 में सरकार ने खाद्य उत्पादों पर केंद्रित, विज्ञान और तकनीक आधारित प्रयोगों पर बड़ा निवेश करने की घोषणा की थी. इसके साथ ही, सेल-कल्चर्ड मीट को शोध में वरीयता देने की बात कही गई.

कई जानकार मानते हैं कि प्रयोगशाला में बनाए गए इस तरह के मांस से जुड़े नैतिक सवालों में यह पक्ष भी शामिल है कि प्रयोग में इस्तेमाल किए गए शुरुआती एनिमल सेल्स कहां से लिए गए हैं. कई जानकारों के मुताबिक, प्रयोग में इस्तेमाल होने वाले सीरम और कल्चरिंग प्रक्रिया के दौरान डाले जाने वाले ऐंटिबायोटिक और हॉर्मोन्स कितने सुरक्षित हैं, इसपर पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता.

उत्पादन बढ़ाने पर भी उत्सर्जन कम रखने की चुनौती

कई विशेषज्ञ इस प्रक्रिया को बड़े स्तर पर ले जाने और किफायती बनाने की चुनौतियों को भी दिक्कत मानते हैं. नील स्टेफंस, बर्मिंघम यूनिवर्सिटी में तकनीक और समाज विषय के व्याख्याता हैं. उन्होंने एएफपी से बातचीत में कहा, "लंबे समय से पारंपरिक मवेशीपालन की तुलना में कल्चर्ड मीट को जलवायु के लिए बेहतर समाधान की तरह पेश किया जा रहा है. लेकिन इस क्षेत्र के आगे कई चुनौतियां हैं जैसे कि बड़े स्तर पर उत्पादन, उत्पाद और प्रक्रिया को किफायती बनाना, कम ऊर्जा की खपत और पर्यावरण के अनुकूल तरीके अपनाना."

स्टेफंस कहते हैं कि कई अन्य कल्चर्ड मीट उत्पादों की तुलना में 'मीटी राइस' के पास एक बढ़त यह है कि यह एक हाइब्रिड उत्पाद है. इसमें जानवर की कोशिकाओं को चावल के साथ मिलाया गया है, जिस कारण यह अपेक्षाकृत सस्ता और कम ऊर्जा खपत वाला हो सकता है.

वह आगाह करते हैं कि बढ़त के बावजूद 'मीटी राइस' को यह साबित करना होगा कि बड़े स्तर पर उत्पादन किए जाने पर भी यह पर्यावरण के अनुकूल बना रहेगा. दूसरी बड़ी चुनौती लोगों को यह खाने के लिए राजी करना है. स्टेफंस कहते हैं, "ये दोनों ही चीजें चुनौतीपूर्ण हो सकती हैं."

भारतीयों के आहार में प्रोटीन की कमी बड़ी चिंता

जीवन का 'बिल्डिंग ब्लॉक' कहा जाने वाला प्रोटीन सबसे अहम पोषक तत्वों में है. यह शरीर को बनने, बढ़ने में मदद करता है. कोशिकाओं और ऊत्तकों के निर्माण और मरम्मत में काम आता है. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) दिनभर में 48 ग्राम प्रोटीन लेने की सलाह देता है. प्रोटीन की कमी बच्चों के विकास को प्रभावित करती है और कुपोषण की मुख्य वजह बनती है.

भारतीय खाने में अक्सर प्रोटीन की अनदेखी होती है और यह बड़ी स्वास्थ्य समस्या है. 2017 में हुए "प्रोटीन कंजम्प्शन इन डाइट ऑफ अडल्ट इंडियंस: अ जनरल कंज्यूमर सर्वे" में पाया गया कि भारत में हर 10 में से नौ लोगों के खाने में प्रोटीन की मात्रा पर्याप्त नहीं है. आंकड़ों से पता चला कि 90 फीसदी से ज्यादा भारतीयों को प्रोटीन की दैनिक जरूरत के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है.

एक और चिंताजनक पक्ष यह दिखा कि मांसाहारियों की तुलना में शाकाहारियों में प्रोटीन की ज्यादा कमी है. ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में जहां प्रोटीन का सेवन बढ़ रहा है, वहीं बाकी एशियाई देशों के मुकाबले भी भारत में औसत प्रोटीन का सेवन काफी कम है. भारतीय आहार ज्यादातर अनाज आधारित है और 60 फीसदी तक प्रोटीन अनाज से लिया जाता है. यह ना केवल गुणवत्ता में कमतर है, बल्कि पचाने में भी आसान नहीं है.

2019 में आई दी ईट-लांसेट कमीशन की एक रिपोर्ट में रेखांकित किया गया कि किस तरह भारतीय आहार में सिंपल कार्बोहाइड्रेट की अधिकता और प्रोटीन, फल और सब्जियों की कमी है. लोग किस तरह प्रोटीन को वरीयता नहीं देते, इसका संकेत इंडियन कंज्यूमर मार्केट की एक रिपोर्ट में भी मिलता है जिसके मुताबिक लोग अनाज और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों पर ज्यादा खर्च करते हैं और प्रोटीन से भरपूर चीजों पर काफी कम.

दुनिया भर में करोड़ों लोगों के सामने है भुखमरी का संकट

इसका गर्भवती महिलाओं, बच्चों को दूध पिलाने वाली महिलाओं और पांच साल से कम बच्चों में खासा गंभीर असर दिखता है. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार सर्वेक्षण के मुताबिक, पांच साल से कम उम्र के 38 फीसदी बच्चों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा.