Holi 2019: मथुरा में होलिका दहन पर होता है विशेष आयोजन, 'फालेन' और 'जटवारी' में जलते कंडों के बीच चलते हैं पंडे

होलिका-दहन के संदर्भ में कई कथाएं प्रचलित हैं. उसी तरह इस पर्व को मनाने की परंपराएं व प्रथाएं भी भिन्न-भिन्न हैं. यहां हम मथुरा के ‘फालेन’ और ‘जटवारी’ गांव की विशेष होलिका-दहन का जिक्र करेंगे. जहां होलिका की धधकती आग में स्थानीय पंडे प्रवेश करते हैं.

होलिका दहन 2019 (Photo Credits: FacebooK)

Holi 2019: विजयादशमी की तरह होलिका दहन (Holika Dahan) भी बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है. फाल्गुन शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी की रात शुभ मुहुर्त पर पवित्र अग्नि जलाई जाती है. इस अग्नि में सभी तरह की बुराई, अहंकार और नकारात्मक तत्वों को अग्नि में समर्पित करने की परंपरा सदियों से निभाई जा रही है. होलिका-दहन के संदर्भ में कई कथाएं प्रचलित हैं. उसी तरह इस पर्व को मनाने की परंपराएं व प्रथाएं भी भिन्न-भिन्न हैं. यहां हम मथुरा (Mathura) के ‘फालेन’ (Fallen) और ‘जटवारी’ (Jatwari) गांव की विशेष होलिका दहन का जिक्र करेंगे. जहां होलिका की धधकती आग में स्थानीय पंडे प्रवेश करते हैं, और सकुशल बाहर आते हैं. आइये जाने क्या है ये परंपराएं...

समूचे ब्रजमण्डल में होली का पर्व पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. यहां की लट्ठमार, लड्डू-जलेबी, छड़ीमार, रंगों एवं फूलों की होली पूरे विश्व में लोकप्रिय है. 40 दिनों तक चलने वाले इस महापर्व के दरम्यान शहर के लगभग सभी कृष्ण मंदिरों में फाग की धुनें गूंजती हैं और अबीर-गुलाल उड़ाये जाते हैं. इन 40 दिनों तक पूरा शहर मानों कृष्णमय हो जाता है. यहां कोसी से करीब 58 किमी दूर ‘फालेन’ नामक गांव में बड़े अनूठी किस्म की होलिका-दहन मनायी जाती है. इसकी तैयारियां करीब एक माह पूर्व ही शुरु हो जाती हैं. होली की अति प्राचीन पारंपरिक कथा से प्रभावित ‘फालेन’ का यह अनूठा पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है. यह भी पढ़ें: Holi 2019: होलिका दहन की रात करें हनुमान जी की विशेष पूजा, दूर होंगे साल भर के सारे कष्ट

प्रचलित कथा

मान्यता है कि मथुरा स्थित फालेन गांव के निकट कुछ साधु तपस्या कर रहे थे. एक रात उन्हें सपने में किसी ने डूंगर के पेड़ के नीचे एक मूर्ति दबी होने की जानकारी दी. तब गांव के एक कौशिक परिवार ने खुदाई करवाई. खुदाई में भगवान नृसिंह और प्रह्लाद की प्रतिमाएं निकलीं. तपस्वी साधुओं ने गांव वासियों को बताया कि जो भी व्यक्ति नृसिंह भगवान एवं प्रह्लाद की सच्चे एवं शुद्ध मन से पूजा करके होलिका की धधकती आग से गुजरेगा, उसमें प्रह्लाद विराजमान होंगे, इसलिए उसके शरीर पर आग का कोई असर नहीं होगा. इसके पश्चात जिस जगह से प्रतिमा निकली थी, वहीं एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाकर दोनों प्रतिमाओं की स्थापना कर दी गयी. मंदिर के पास ही प्रह्लाद कुण्ड का निर्माण कराया गया. इसके पश्चात से फाल्गुन शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को प्रह्लाद-लीला साकार करने की परंपरा शुरू हुई, जो आज भी उसी धूमधाम के साथ मनायी जाती है.

क्या है परंपरा?

फालेन गांव के आसपास के पांच गांवों की होली संयुक्त रूप से रखी जाती है. मंदिर में पूजा-अर्चना और प्रह्लाद कुण्ड में आचमन करने के पश्चात 30 फुट व्यास के दायरे में होलिका सजायी जाती है, जिसकी ऊंचाई 10 से 15 फुट की होती है. शुभ मुहुर्त में इसमें अग्नि प्रज्जवलित दहन के पश्चात होलिका में प्रवेश करते हैं. मान्यतानुसार इस होलिका में केवल कौशिक परिवार का सदस्य ही प्रवेश कर सकता है. कौशिक परिवार के जिस सदस्य को जलती होलिका में प्रवेश करना होता है, वह फाल्गुन शुक्ल एकादशी से ही अन्न का परित्याग करने के पश्चात चतुर्दशी के दिन प्रह्लाद कुण्ड में स्नान कर मंदिर में पूजा करता है.

गांव के एक पण्डे द्वारा भक्त प्रह्लाद के आशीर्वाद से सुसज्जित माला को कौशिक परिवार का अमुक सदस्य को धारण करवाया जाता है. इसके पश्चात ही वह होलिका की पवित्र अग्नि में प्रवेश करता है और धधकते अंगारों पर चलते हुए सकुशल बाहर निकल आता है। इस दौरान सारा गांव ढोल-नगाड़ों और रसियों की आवाज़ से गुंजायमान हो उठता है। आस्था और अदम्य साहस का अनोखा करिश्मा देख यहां मौजूद श्रद्धालु दांतो तले उंगलियां दबा लेते हैं. यह भी पढ़ें: Holi 2019: ब्रज की होली के विभिन्न रंगों में शामिल है 'चतुर्वेदी समाज का डोला', जानिए इसकी खासियत

जटवारी में होलिका दहन

फालेन की तरह मथुरा के ही शेरगढ़ गांव जटवारी में भी फाल्गुन शुक्लपक्ष की चतुर्दशी पर इसी गांव का एक पंडा भक्त प्रह्लाद का माला धारण कर तय मुहूर्त में इस विशालकाय होलिका की धधकती ज्वाला में नंगे पैर प्रवेश करता है और सुरक्षित बाहर निकलता है. यहां भी फालेन की तरह भारी संख्या में श्रद्धालु एकत्र होते हैं, जिसमें विदेशियों की संख्या भी काफी होती है. सभी श्रद्धालु और पर्यटक पंडा के सकुशल बाहर निकलते ही भक्त प्रह्लाद की जयघोष का नारा लगाते हैं. लेकिन देशी-विदेशी सभी भक्त अंत तक अपनी इस दुविधा का समाधान नहीं कर पाते कि अग्नि में नंगे पांव चलने के बावजूद पांव जलते कैसे नहीं.

नोट- इस लेख में दी गई जानकारियां लेखक की अपनी निजी राय है. इसकी वास्तविकता और सटीकता का हम कोई दावा नहीं करते हैं.

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