भारतीय ज्ञान परंपरा में कोटिल्य यानी आचार्य चाणक्य एक महान रणनीतिकार, दार्शनिक एवं सलाहकार होने के साथ-साथ वेद और पुराण के भी बहुत अच्छे ज्ञाता थे. इसी ज्ञान के आधार पर आचार्य ने विभिन्न श्लोकों के माध्यम से मानव जीवन से जुड़ी तमाम व्यवहारिक बातों का उल्लेख किया है. यहां आचार्य ने चाणक्य नीति के दूसरे अध्याय के आठवें श्लोक के तहत तीन वस्तुओं के बारे में उल्लेख किया है, जो व्यक्ति के जीवन में कष्टकारी साबित हो सकती है. आइये जानते हैं, इस श्लोक के माध्यम से क्या कहना चाहा है आचार्य चाणक्य ने...
कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्ट च खलु यौवनम्।
कष्टात्कष्टतरं चैव परगे हनिवासनम्॥৪॥
अर्थात
इस श्लोक के ज़रिए आचार्य चाणक्य बताते हैं कि मूर्खता और जवानी दोनों ही इंसान के लिए बहुत कष्टदायी हैं, लेकिन किसी दूसरे के घर में रहना इन दोनों कष्टों से कई गुना ज्यादा कष्टदायी हो सकती है. यह भी पढ़ें : Ganesh Chaturthi 2024 Visarjan Dates: किस-किस दिन विदाई हो सकती है गणपति बप्पा की? जानें विसर्जन तिथियां एवं मुहूर्त!
-कहने का आशय यह है कि मूर्खता स्वयं में एक कष्ट है और जवानी भी व्यक्ति को दुःखी ही करती है. किसी ईच्छा के पूरी नहीं होने पर भी दुःख तथा कोई भला-बुरा काम हो जाए, तब भी दुःख ही मिलता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन दुःखों से भी बहुत बड़ा दुःख है-पराये घर में रहना. दूसरे घर में न तो व्यक्ति स्वाभिमान के साथ जी सकता है और न अपनी इच्छा से कोई काम ही कर सकता है, क्योंकि मूर्ख व्यक्ति को उचित-अनुचित का ज्ञान न होने के कारण हमेशा कष्ट उठाना पड़ता है. इसीलिए कहा गया है कि मूर्ख होना अपने-आप में एक बड़ा अभिशाप है. कौन-सी बात उचित है और कौन-सी अनुचित है, इस बात का अहसास हर व्यक्ति को होना बहुत जरूरी है. इसी तरह जवानी भी बुराइयों की जड़ है. इसलिए तो कहा जाता है कि जवानी अंधी और दीवानी होती है. जवानी में व्यक्ति काम के आवेग में विवेक खो बैठता है, उसे अपनी शक्ति पर गुमान हो जाता है. उसमें इतना ज्यादा अहंकार भर जाता है कि वह अपने सामने किसी दूसरे व्यक्ति को कुछ नहीं समझता. जवानी मनुष्य को विवेकहीन ही नहीं, निर्लज्ज भी बना देती है, जिसके कारण व्यक्ति को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं. ऐसे में व्यक्ति को यदि दूसरे के घर में रहना पड़े तो उसे दूसरे की कृपा पर उसके इशारे पर रहना पड़ेगा. इस तरह वह अपनी स्वतंत्रता गंवा देता है, इसलिए कहा गया...
'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’