
नयी दिल्ली, 17 जनवरी उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को कहा कि भारतीय दंड संहिता के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध को केवल मृतक के दुखी परिवार के सदस्यों की भावनाओं को शांत करने के लिए किसी व्यक्ति के खिलाफ यांत्रिक तरीके से नहीं लगाया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि जांच एजेंसियों को संवेदनशील बनाया जाना चाहिए ताकि किसी व्यक्ति को पूरी तरह से अस्थिर अभियोजन की प्रक्रिया के दुरुपयोग का नुकसान न उठाना पड़े।
पीठ ने कहा, ‘‘ऐसा लगता है कि आईपीसी की धारा 306 का इस्तेमाल पुलिस द्वारा लापरवाही से और बहुत हल्के में किया जाता है। वास्तविक मामलों में शामिल व्यक्तियों को नहीं बख्शा जाना चाहिए, लेकिन इस प्रावधान को केवल मृतक के दुखी परिवार की भावनाओं को शांत करने के लिए व्यक्तियों के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।’’
अदालत ने कहा, ‘‘प्रस्तावित अभियुक्त और मृतक के आचरण, मृतक की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु से पहले उनकी बातचीत और वार्तालाप को व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए और जीवन की दिन-प्रतिदिन की वास्तविकताओं से अलग नहीं किया जाना चाहिए। आदान-प्रदान में प्रयुक्त अतिशयोक्ति को, बिना किसी अतिरिक्त कारण के, आत्महत्या करने के लिए उकसाने के रूप में महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए।’’
शीर्ष अदालत ने कहा कि निचली अदालत को भी ‘बहुत सावधानी और सतर्कता’ बरतनी चाहिए और यांत्रिक रूप से आरोप तय करके खुद को बचाने का रवैया नहीं अपनाना चाहिए, भले ही मामले में जांच एजेंसियों ने धारा 306 के तत्वों के प्रति पूरी तरह से उपेक्षा दिखाई हो।
यह निर्णय महेंद्र अवासे नामक व्यक्ति द्वारा दायर याचिका पर आया, जिसमें मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक आदेश को चुनौती दी गई थी। उच्च न्यायालय ने आईपीसी की धारा 306 के तहत दंडनीय अपराधों से उसे मुक्त करने की उसकी प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया था।
रिकॉर्ड के अनुसार, एक व्यक्ति ने आत्महत्या करके अपनी जान दे दी और एक नोट छोड़ा, जिसमें उसने उल्लेख किया कि अवासे द्वारा उसे परेशान किया जा रहा था।
सुसाइड नोट के अलावा, गवाहों के बयान दर्ज किए गए, जिनसे पता चला कि मरने वाला व्यक्ति परेशान था क्योंकि अवासे उसे ऋण चुकाने के लिए तंग कर रहा था।
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