देश की खबरें | पति का पत्नी को 'परजीवी' कहना पूरी महिला जाति का अपमान है: दिल्ली उच्च न्यायालय

Get Latest हिन्दी समाचार, Breaking News on India at LatestLY हिन्दी. दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि पत्नी के जीविकोपार्जन के लिए सक्षम होने की वजह से पति उसे भरण-पोषण राशि देने से मुक्त नहीं हो जाता। अदालत ने यह भी कहा कि पत्नी को 'परजीवी' कहना उसके साथ-साथ पूरी महिला जाति का अपमान है।

नयी दिल्ली, 24 सितंबर दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि पत्नी के जीविकोपार्जन के लिए सक्षम होने की वजह से पति उसे भरण-पोषण राशि देने से मुक्त नहीं हो जाता। अदालत ने यह भी कहा कि पत्नी को 'परजीवी' कहना उसके साथ-साथ पूरी महिला जाति का अपमान है।

न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद ने निचली अदालत द्वारा पत्नी को भरण-पोषण देने के निर्देश के खिलाफ पति की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि भारतीय महिलाएं परिवार की देखभाल करने, अपने बच्चों की जरूरतों को पूरा करने और अपने पति तथा उसके माता-पिता की देखभाल करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ देती हैं।

याचिकाकर्ता पति के बारे में कहा जा रहा है कि उसने अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ दिया है और वह दूसरी महिला के साथ रह रहा है।

निचली अदालत ने याचिकाकर्ता पति को अपनी पत्नी को भरण-पोषण के रूप में 30,000 रुपये प्रतिमाह देने का आदेश दिया था, साथ ही उसे मानसिक यातना, अवसाद और भावनात्मक पीड़ा आदि के लिए पांच लाख रुपये देने का आदेश दिया था।

निचली अदालत ने उसे अपनी पत्नी को मुआवजे के तौर पर तीन लाख रुपये का मुआवजा देने का भी निर्देश दिया था, जिसमें मुकदमेबाजी की लागत के रूप में 30,000 रुपये शामिल हैं।

याचिकाकर्ता ने निचली अदालत के आदेश को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में दलील दी कि उसकी पत्नी एक सक्षम महिला है, जो एक बुटीक में काम करती है और इसलिए उसे कानून का दुरुपयोग करके ‘परजीवी’ बनने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

न्यायमूर्ति प्रसाद ने निचली अदालत के निर्देशों में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और कहा कि पत्नी के कमाने में सक्षम होने का तथ्य उसके (पत्नी के) लिए परेशानी का सबब नहीं हो सकता।

उन्होंने हाल ही में दिए गए आदेश में कहा है कि याचिकाकर्ता की वित्तीय स्थिति और संपत्ति का ब्योरा ‘आरामदायक और समृद्ध जीवन शैली’ को दर्शाता है, इसलिए वह (याचिकाकर्ता) भरण-पोषण के रूप में 30,000 रुपये प्रतिमाह देने की स्थिति में है।

अदालत ने यह भी कहा, ‘‘प्रतिवादी (पत्नी) के शारीरिक रूप से सक्षम होने और आजीविका कमा सकने के तथ्य के आधार पर पति अपनी पत्नी और बच्चों को भरण-पोषण न देने के लिहाज से मुक्त नहीं हो जाता। भारतीय महिलाएं परिवार संभालने, अपने बच्चों की ज़रूरतों को पूरा करने, अपने पति और उसके माता-पिता की देखभाल करने के लिए अपनी नौकरी तक छोड़ देती हैं।’’

न्यायमूर्ति प्रसाद ने याचिका खारिज करते हुए कहा, ‘‘यह तर्क कि प्रतिवादी (महिला) केवल एक परजीवी है और (वह) कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग कर रही है, न केवल प्रतिवादी बल्कि पूरी महिला जाति का अपमान है।’’

अदालत ने अपने आदेश में यह भी कहा कि पत्नी घरेलू हिंसा की शिकार थी।

न्यायमूर्ति प्रसाद ने कहा, ‘‘प्रतिवादी (पत्नी) को अपना वैवाहिक घर छोड़ना पड़ा, क्योंकि वह इस तथ्य को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी कि उसका पति किसी दूसरी महिला के साथ रह रहा है।’’

उन्होंने कहा, ‘‘कोई भी महिला यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि उसका पति किसी दूसरी महिला के साथ रह रहा हो और उस महिला से उसका बच्चा भी हो।

अदालत ने कहा, ‘‘ये सभी तथ्य प्रतिवादी/पत्नी को घरेलू हिंसा का शिकार बनाते हैं।’’

अदालत ने कहा कि पति अपनी पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण करने के अपने दायित्व से तब तक नहीं बच सकता, जब तक कि कानून में कोई स्वीकार्य विधिक आधार न हो।

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