नयी दिल्ली, 26 सितंबर : कांग्रेस ने पंजाब के नए मुख्यमंत्री के रूप में दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी (Charanjit Singh Channi) का नाम तय कर सबको चौंका दिया. आगामी विधानसभा चुनावों से पहले पार्टी के इस फैसले ने ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’ (पहचान की राजनीति) को देश के राजनीतिक विमर्श के केंद्र में ला दिया है. राजनीति के इन्हीं पहुलओं पर पेश हैं ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज’ (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार से ‘’ के पांच सवाल और उनके जवाब...
सवाल: पंजाब में दलित समुदाय के चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाए जाने का फैसला कांग्रेस का ‘‘मास्टरस्ट्रोक’’ या देशव्यापी जातिगत लामबंदी का प्रयास, आप क्या कहेंगे?
जवाब: चन्नी को मुख्यमंत्री बनाए जाने को मास्टरस्ट्रोक इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि वह दलित सिख समुदाय से आते हैं और पंजाब में दलित मतदाताओं की तादाद तकरीबन 32 प्रतिशत है. पंजाब में दलित मतदाताओं की संख्या को देखते हुए सभी पार्टियां उन्हें लुभाने में लगी हैं. आम आदमी पार्टी ने तो घोषणा कर दी है कि यदि वह सत्ता में आती है तो दलित को उपमुख्यमंत्री बनाएगी. शिरोमणि अकाली दल ने दलितों को अपने खेमे में करने के लिए बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन किया है. ऐसी स्थिति में जब दोनों पार्टियां अपनी-अपनी चाल चल रही थीं तो कांग्रेस ने एक दलित को मुख्यमंत्री बनाकर उनकी चाल की धार ही कुंद करने का प्रयास किया है. अब यह मास्टरस्ट्रोक साबित होगा या नहीं, यह देखने की बात है लेकिन पंजाब में जिस तरह से कांग्रेस में अंतर्कलह मची है, उस स्थिति में कांग्रेस ने सर्वश्रेष्ठ कदम तो जरूर उठाया है.
सवाल: अगले साल की शुरुआत में पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं, क्या कांग्रेस के इस कदम का देश की राजनीति पर भी कोई असर देखते हैं आप?
जवाब: इससे दलित राजनीति जरूर फिर से राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आ गई है लेकिन यह मानना सही नहीं होगा कि दलित मुख्यमंत्री बनाने से दलित कांग्रेस को वोट करने लगेंगे. मैं नहीं मानता कि ऐसी कोई चीज होने वाली है. पंजाब में तो दलित वोट पहले से ही कांग्रेस को मिलता रहा है. यह कोई नयी बात नहीं होगी. इसका असर, अन्य चुनावी राज्यों में होगा, इसकी संभावना मुझे दिखाई नहीं देती.
सवाल: जाति के आधार पर बड़े पदों पर बैठाकर जातीय ध्रुवीकरण करने की कोशिश कोई नयी बात नहीं है, लेकिन क्या ऐसे कदमों से उस जाति का भला होता है?
जवाब: ऐसी नियुक्तियां सांकेतिक होती हैं. अलग-अलग जातियों के मतदाताओं को लुभाने के लिए पार्टियां प्राय: यह काम करती हैं. जहां वे सत्ता में होती हैं, वहां सरकार में बड़े पदों पर बिठाती हैं और जहां सत्ता में नहीं होतीं तो वहां संगठन में बड़े पदों पर जाति विशेष के लोगों को बिठाकर एक संदेश देती हैं. हालांकि ऐसे कदमों से उस जाति विशेष का कोई फायदा होते नहीं दिखता है. राजनीतिक दलों को जरूर फायदा हो जाता है. यह भी पढ़ें : हरियाणा के मुख्यमंत्री ने स्वैच्छिक सेवा देने के इच्छुक लोगों के लिए ‘समर्पण पोर्टल’ की शुरुआत की
सवाल: भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने हाल ही में गुजरात, कर्नाटक और उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदले हैं और इससे पहले केंद्रीय मंत्रिपरिषद में हुए बदलाव में पिछड़े वर्ग को प्रतिनिधित्व देकर उसने उसे भुनाने की भी कोशिश की. इसे आप कैसे देखते हैं?
जवाब: भाजपा की कथनी और करनी में बहुत फर्क है. कुछ लोगों को यदि लगता है कि भाजपा के केंद्र की सत्ता में आने के बाद जाति की राजनीति खत्म हो गई तो वे बड़ी भूल कर रहे हैं. कुछ राजनीतिक पार्टियां बेहिचक और खुलकर जाति की राजनीति करती हैं और कुछ पार्टियां ‘हाथी के दांत दिखाने के कुछ और खाने के कुछ’, वाले सिद्धांत पर काम करती हैं. भाजपा की राजनीति हाथी के दांत वाली है. जातियों के आधार पर बने कई छोटे-छोटे राजनीतिक दलों के साथ भाजपा का गठबंधन है. इन गठबंधनों को बनाने का आधार जातीय गोलबंदी ही है. ऐसा तो नहीं है कि ये पार्टियां विकास का मसीहा रही हैं. जाति की राजनीति तो टिकटों के बंटवारे से ही आरंभ हो जाती है और मंत्रिपरिषद के गठन तक चलती है. वह चाहे कांग्रेस हो या भाजपा या फिर कोई अन्य दल.
सवाल: जाति आधारित जनगणना की मांग को लेकर हो रही राजनीति के क्या निहितार्थ हैं?
जवाब: जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की गिनती की मांग हो रही है. इसे लेकर दो खेमे बंटे हैं. एक खेमे में भाजपा है और दूसरे खेमे में कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दल हैं. कांग्रेस और क्षेत्रीय दल जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं और भाजपा यह नहीं चाहती है. अभी ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण है लेकिन यह स्पष्ट है कि उनकी तादाद 27 प्रतिशत से कहीं ज्यादा है. मुझे लगता है कि भाजपा को भय इस बात का है कि जैसे ही जाति आधारित जनगणना होगी, ओबीसी जनाधार वाली क्षेत्रीय पार्टियां आबादी के हिसाब से आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग शुरू कर देंगी. इसके लिए वे सरकार पर दबाव बनाएंगी और इसे लेकर भाजपा के खिलाफ देशभर में एक माहौल खड़ा हो सकता है. अगर ऐसी स्थिति आती है तो मंडल-2 वाली स्थिति पैदा हो सकती है. ऐसे में भाजपा को नुकसान होने का अंदेशा है. यही वजह है कि वह इस मामले से अपने हाथ पीछे खींच रही है जबकि उसे घेरने के लिए विपक्षी दल इस मुद्दे को हवा दे रहे हैं.